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प्रस्तावना
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"बज्झदि कम्मं जेण दु चेदणभावेण भावबंधो सो।
कम्मादपदेसाणं अण्णोण्णपवेसणं इदरो ॥"-द्रव्यसंग्रह, गा. ३२ जिस चैतन्य परिणति से कर्मों का बन्ध होता है, उसे भावबन्ध कहते हैं। आत्मा और कर्म के प्रदेशों का परस्पर में प्रवेश हो जाना द्रव्यबन्ध है।
सूक्ष्मदृष्टि से विचार करने पर विदित होता है कि जिस प्रकार कर्मों को यह जीव बाँधता है-पराधीन करता है, उसी प्रकार कर्म भी इस जीव को पराधीन बनाते हैं। बन्ध में दोनों की स्वतन्त्रता का परित्याग होता है। दोनों विवश किये जाते हैं। पण्डितप्रवर आशाधरजी लिखते हैं
“स बन्धो बध्यन्ते परिणतिविशेषेण विवशीक्रियन्ते कर्माणि प्रकृतिविदुषो येन यदि वा। स तत्कर्माम्नातो नयति पुरुषं यत् स्ववशतां
प्रदेशानां यो वा स भवति मिथः श्लेष उभयोः ॥” –अन. धर्मा. २,३८ - "जिस परणति विशेष से कर्म अर्थात् कर्मत्व परिणत पुद्गल- द्रव्यकर्म विपाक-अनुभव करने वाले जीव के द्वारा परतन्त्र बनाये जाते हैं-योगद्वार से प्रविष्ट होकर पुण्य-पापरूप परिणमन करके भोग्यरूप से सम्बद्ध किये जाते हैं, वह बन्ध है। अर्थात् आत्मा के जिन भावों से कर्मत्वपरिणत पुद्गल जीव के द्वारा परतन्त्र किया जाता है, वह बन्ध है। अथवा जो कर्म जीव को अपने अधीन करता है, वह बन्ध है अथवा जीव और पुद्गल के प्रदेशों का परस्पर मिल जाना बन्ध है।"
बन्ध के विषय में यह बात तो सर्वसाधारण के दृष्टिपथ में रहती है कि जीव कर्मों को बाँधता है, किन्तु कर्म भी जीव को बाँधते हैं, प्रायः यह बात ध्यान में नहीं लायी जाती। पं. आशाधरजी ने यही विषय बताया कि बन्ध में दोनों की स्वतन्त्रता का परित्याग होता है। जीव तथा कर्म दोनों स्वतन्त्र नहीं रहते हैं। अर्थात् वे परतन्त्र हो जाते हैं।
यह बन्ध आत्मा और कर्म की परस्पर अनुकूलता होने पर ही होता है। प्रतिकूलों का बन्ध नहीं होता है। यही बात पंचाध्यायी कही गयी है
___ “सानुकूलतया बन्धो न बन्धः प्रतिकूलयोः ॥” –२,१०२ मुनीन्द्र कुन्दकुन्द कहते हैं
“फासेहिं पुग्गलाणं बंधो जीवस्स रागमादीहिं।
अण्णोण्णमवगाहो पुग्गलजीवप्पगो भणिदो ॥" -प्रवचनसार, गा. २,८५ (१७७) -- “यथायोग्य स्निग्धरूक्षत्वरूप स्पर्श से पुद्गल-कर्म-वर्गणाओं का परस्पर में पिण्डरूप बन्ध होता है। रागद्वेष मोहरूप परिणामों से जीव का बन्ध होता है। जीव के परिणामों का निमित्त पाकर जीव पुद्गल का बन्ध होना जीव पुद्गल का बन्ध है।"१
“सपदेसो सो अप्पा तेसु पदेसेसु पुग्गला काया।
पविसंति जहाजोग्गं चिट्ठति य जंति बज्झंति ॥" -२,८६(१७८) यह आत्मा असंख्यातप्रदेशी है। उसके प्रदेशों में आत्मप्रदेश-परिस्पन्दनरूप योग के अनुसार
१. यस्तावदत्र कर्मणां स्निग्धरूक्षत्वस्पर्शविशेषैरेकत्वपरिणामः स केवल पुद्गलबन्धः। यस्तु जीवस्योपाधिक-मोह-राग
द्वेषपर्यायैरेकत्वपरिणामः स केवल जीवबन्धः। यः पुनः जीवकर्म-पुद्गलयोः परस्परनिमित्तमात्रत्वेन विशिष्टतरः परस्परमवगाहः स तदुभयबन्धः-अमृतचन्द्र सूरि कृत प्रवचनसार टीका, २,६५
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