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________________ ७२ महाबन्ध विकारी भाव न शुद्ध आत्मा में उपलब्ध होते हैं और न जीव से असम्बद्ध पुद्गल में उनकी प्राप्ति होती है। बन्ध की अवस्था में जिन दो वस्तुओं का परस्पर में बन्ध्य-बन्धक भाव उत्पन्न होता है, उन दोनों के स्वगुणों में विकृति उत्पन्न होती है। कहा भी है ___ "हरदी ने जरदी तजी, चूना तज्यो सफेद। दोऊ मिल एकहि भए, रह्यो न काहू भेद ॥" 'पंचाध्यायी' में कहा है "बन्धः परगुणाकारा क्रिया स्यात् पारिणामिकी। तस्यां सत्यामशुद्धत्वं तद्वयोः स्वगुणच्युतिः ॥२,१३०॥" - 'अन्य के गुणों के आकार रूप परिणमन होना बन्ध है। इस परिणमन के उत्पन्न होने पर अशुद्धता आती है। उस समय उन दोनों बन्ध होने वालों के स्वगुणों का विपरिणमन होता है।' जीव के रागादि भाव न शुद्ध जीव के हैं और न शुद्ध पुद्गल के हैं। 'बन्धोऽयं द्वन्द्वजः स्मृतः'-यह बन्ध दो से उत्पन्न होता है। एक द्रव्य का बन्ध नहीं होता। इस प्रसंग में 'बृहद्रव्यसंग्रह' टीका का यह कथन विशेष उद्बोधक है-आगम में बन्ध के कारण मोह, राग और द्वेष कहे गये हैं। 'मोह' शब्द दर्शनमोहनीय अर्थात मिथ्यात्व का सूचक है। राग और द्वेष चारित्र मोह रूप हैं- 'मोहो दर्शनमोहो मिथ्यात्वमिति यावत्...चारित्र-मोहो रागद्वेषौ भण्येते।' प्रश्न-चारित्रमोह शब्द से राग-द्वेष किस प्रकार कहे जाते हैं ___ “चारित्रमोह शब्देन रागद्वेषौ कथं भण्येते? इति चेत्।" उत्तर-“कषायमध्ये क्रोध-मानद्वयं द्वेषाङ्गम्, मायालोभद्वयं च रागाङ्गम्, नोकषायमध्ये तु स्त्री पुं-नपुंसकवेदत्रयं हास्य-रतिद्वयं च रागाङ्गम्, अरति-शोकद्वयं भयजुगुप्साद्वयं च द्वेषाङ्गमिति ज्ञातव्यम्।"- कषाय में द्वेष के अंग रूप क्रोध तथा मान अन्तर्भूत हैं। राग के अंग माया तथा लोभ अन्तर्भूत हैं। नोकषाय में स्त्रीवेद, पुरुषवेद, नपुंसकवेद ये तीन तथा हास्य और रतिद्वय राग के अंगरूप हैं। अरति, शोक तथा भय और जुगुप्सा युगल द्वेष के अंग हैं। प्रश्न-राग-द्वेष आदिक परिणाम क्या कर्मजनित हैं अथवा जीव से उत्पन्न हुए हैं? उत्तर-स्त्री और पुरुष के संयोग से उत्पन्न हुए पुत्र के समान, चूना तथा हल्दी के संयोग से उत्पन्न हुए वर्ण-विशेष के समान राग और द्वेष जीव और कर्म के संयोग से उत्पन्न हुए हैं। नय की विवक्षा के अनुसार विवक्षित एकदेश शुद्ध निश्चय से राग-द्वेष कर्मजनित कहलाते हैं तथा अशुद्ध-निश्चयनय से जीवजनित कहलाते हैं। यह अशुद्ध निश्चयनय शुद्ध निश्चयनय की अपेक्षा से व्यवहारनय ही है। प्रश्न-साक्षात् शुद्ध निश्चयनय से ये राग-द्वेष किसके हैं? उत्तर-स्त्री और पुरुष के संयोग बिना पुत्र की अनुत्पत्ति के समान तथा चूना और हल्दी के संयोग बिना रंगविशेष की अनुत्पत्ति के समान साक्षात् शुद्ध निश्चयनय की अपेक्षा से राग-द्वेषादि की उत्पत्ति ही नहीं होती, क्योंकि शुद्ध निश्चयनय की दृष्टि में जीव और पुद्गल दोनों ही शुद्ध हैं और इनके संयोग का अभाव है। नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती कहते है १. अत्राह शिष्यः-रागद्वेषादयः किं कर्मजनिताः, किं जीवजनिता इति? तत्रोत्तरम्-स्त्री-पुरुषसंयोगोत्पत्रपुत्र इव सुधाहरिद्रासंयोगोत्पन्नवर्णविशेष इवोभयसंयोगजनिता इति। पश्चात्रयविवक्षावशेन विवक्षितैक-देशशुद्धनिश्चयेन कर्मजनिता भण्यन्ते। तथैवाशुद्धनिश्चयेन जीवजनिता इति। स चाशुद्धनिश्चयः शुद्धनिश्चयापेक्षया व्यवहार एव। अथ मतम्-साक्षाच्छुद्धनिश्चयनयेन कस्येति पृच्छामो वयम् ? तत्रोत्तरम्-साक्षाच्छुद्धनिश्चयेन स्त्री पुरुष-संयोगरहितपुत्रस्येव सुधाहरिद्रासंयोगरहितरङ्ग विशेषस्येव तेषामुत्पत्तिरेव नास्ति कथमुत्तरं प्रयच्छाम इति। बृहद्रव्यसंग्रह, गाथा ४८ की टीका, पृष्ठ २०१-२०२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001388
Book TitleMahabandho Part 1
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages520
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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