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________________ प्रस्तावना ७१ करता है।' यदि जीव और पुद्गल में निमित्त भाव के स्थान में उपादान उपादेयत्व हो जाए, तो जीव द्रव्य का अभाव होगा अथवा पुद्गल द्रव्य नहीं रहेगा। दोनों में भिन्नत्व का अभाव होकर स्थापित होगा। भिन्न द्रव्यों में उपादान-उपादेयता नहीं पायी जाती है। 'प्रवचनसार' में लिखा है "कम्मत्तण-पाओग्गा खंधा जीवस्स परिणई पप्पा। गच्छंति कम्ममावं ण हि ते जीवेण परिणमिदा ॥” -प्रवचनसार, गा. २,७७ (१६६) -- “जीव की रागादिरूप परिणतिविशेष को प्राप्त कर कर्मरूप परिणमन के योग्य पुद्गलस्कन्ध कर्म भाव को प्राप्त करते हैं। उनका कर्मत्वपरिणमन जीव के द्वारा नहीं किया गया है।"२ "ते ते कम्मत्तगदा पोग्गलकाया पुणो वि जीवस्स। संजायते देहा देहतरसंकमं पप्पा।" -प्रवचनसार, गा. २,७८ (१७०) -“कर्मत्व को प्राप्त पुद्गलकाय जीव के देहान्तररूप संक्रम-परिवर्तन को पाकर पुनः देहरूप को प्राप्त करते “आदा कम्ममलिमसो परिणाम लहदि कम्मसंजुत्तं। तत्तो सिलसदि कम्मं तम्हा कम्मं तु परिणामो।" -प्रवचनसार, गा. १२१ -“कर्म के कारण मलिनता को प्राप्त आत्मा कर्म-संयुक्त परिमाण को प्राप्त करता है। इससे कर्मों का सम्बन्ध होता है। अतः परिणाम को भी कर्म कहते हैं।" इस विषय को स्पष्ट करते हुए अमृतचन्द्रसूरि लिखते हैं आत्मपरिणामरूप भाव कर्म का कर्ता है। पुद्गल परिणामरूप द्रव्यकर्म का कर्ता नहीं है। द्रव्यकर्म का कर्ता कौन है? पुद्गल का परिणाम स्वयं पुद्गल रूप है। इससे परमार्थ दृष्टि से पुद्गलात्मक द्रव्य कर्म का पुद्गल का परिणाम स्वयं है। वह आत्मपरिणाम स्वरूप भाव कर्म का कर्ता नहीं है। इससे जीव आत्मस्वरूप से परिणमन करता है, पुद्गल रूप से परिणमन नहीं करता कर्म के द्रव्यकर्म और भावकर्म ये दो भेद कहे गये हैं। आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती कहते हैं -पुद्गल का पिण्ड द्रव्यकर्म है। उस पिण्ड स्थित शक्ति से उत्पन्न अज्ञानादि भावकर्म हैं।' अध्यात्म शास्त्र की दृष्टि से आत्मा के प्रदेशों का सकम्प होना भावकर्म है। इस कम्पन के कारण पुद्गल की विशिष्ट अवस्था की उत्पत्ति को द्रव्यकर्म कहा है। बन्ध का स्वरूप कर्मों की अवस्थाविशेष को बन्ध कहते हैं। जीव और कर्मों के सम्बन्ध होने पर दोनों के गुणों में विकृति की उत्पत्ति होना बन्ध है। उदाहरणार्थ, हल्दी और चूना के सम्बन्ध से जो विशेष लालिमा की उत्पत्ति हुई है, वह वर्ण एक जात्यन्तर है। वह न हल्दी में है और न चूने में ही पाया जाता है। इसी प्रकार राग-द्वेषादि १. “परिणममानस्य चितश्चिदात्मकैः स्वयमपि स्वकैविः। भवति हि निमित्तमात्रं पौद्गलिक कर्म तस्यापि ॥"-पु. सि., १३ २. यतो हि तुल्यक्षेत्रावगाढ-जीवपरिणाममात्रं बहिरंगसाधनमाश्रित्य जीवं परिणमयितारमन्तरेणापि कर्मत्वपरिणमनशक्तियोगिनः पुद्गलस्कन्धाः स्वयमेव कर्म भावेन परिणमन्ति। ततोऽवधार्यते न पुद्गलपिण्डानां कर्मत्वकर्ता पुरुषोऽस्ति अमृतचन्द्रसूरिकृत-प्रवचनसार टीका तत्त्व-प्रदीपिकावृत्तिः, पृ. २३१ ३. कर्मभावं ज्ञानावरणादिद्रव्यकर्मपर्यायम्-जयसेनाचार्य। ४. “पोग्गलपिंडो दव्यं तस्सत्ती भावकम्मं तु ॥" -गो.क., गा.६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001388
Book TitleMahabandho Part 1
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages520
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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