SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 71
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ७० महाबन्ध जीव के परिणामों का निमित्त पाकर पुद्गल की अवस्था, जिससे जीव परतन्त्र-सुख-दुःख का भोक्ता किया जाता है, कर्म कहलाती है। आचार्य अकलंकदेव अपने राजवार्तिक (पृ. २६४) में लिखते हैं-“यथा भाजनविशेषे प्रक्षिप्तानां विविधरसबीजपुष्पफलानां मदिराभावेन परिणामः, तथा पुद्गलानामपि आत्मनि स्थितानां योगकषायवशात् कर्मभावेन परिणामो वेदितव्यः।" जैसे पात्रविशेष में डाले गये अनेक रसवाले बीज, पुष्प तथा फलों का मदिरारूप में परिणमन होता है, उसी प्रकार योग तथा कषाय के कारण आत्मा में स्थित पुद्गलों का कर्मरूप परिणाम होता है। महर्षि कुन्दकुन्द 'समयसार' में लिखते हैं “जीवपरिणामहेदूं कम्मत्तं पुग्गला परिणमंति। पुग्गलकम्मणिमित्तं तहेव जीवो वि परिणमदि ॥५०॥" -“जीव के परिणामों का निमित्त पाकर पुद्गल का कर्मरूप परिणमन होता है। इसी प्रकार पौद्गलिक कर्म के निमित्त से जीव का भी परिणमन होता है।" केशवसिंह ने 'क्रियाकोष' में कहा है "सूरज सन्मुख दरपण धरै, रुई ताके आगे करै। रवि-दर्पण को तेज मिलाया, अगन उपज रुई बलि जाय ॥५४॥ नहि अगनी इकली रुइ माहिं, दरपन मध्य कहूँ है नाहिं। दुहुयनि को संयोग मिलाय, उपजै अगनि न संशै थाय ॥५५॥" 'समयसार' में कहा है "ण वि कुव्वदि कम्मगुणे जीवो कम्मं तहेव जीवगुणे। अण्णोण्णणिमित्तेण दु परिणाम जाण दोण्हंपि॥ ८१॥" -“तात्त्विक दृष्टि से विचार किया जाए, तो जीव न तो कर्म में गुण करता है और न कर्म ही जीव में कोई गुण उत्पन्न करता है। जीव तथा पुद्गल का एक-दूसरे के निमित्त से विशष्ट परिणमन हुआ करता प्रत्येक द्रव्य अपने स्वभाव में स्थित है। उसके परिणमन में अन्य द्रव्य उपादान कारण नहीं बन सकता। जीव न पुद्गल का कारण है और न पुद्गल जीव का उपादान हो सकता है। इनमें उपादान-उपादेयभाव के स्थान में निमित्त-नैमित्तिकपना पाया जाता है। इससे जो सिद्धान्त स्थिर होता है, उसके विषय में कुन्दकुन्द स्वामी का कथन है “एदेण कारणेण दु कत्ता आदा सएण भावेण । पुग्गलकम्मकदाणं दु कत्ता सव्वभावाणं ॥२॥" - "इस कारण आत्मा अपने भाव का कर्ता है। वह पुद्गलकर्मकृत समस्त भावों का कर्ता नहीं है।" इस विषय पर अमृतचन्द्रसूरि इन शब्दों में प्रकाश डालते हैं “जीवकृतं परिणाम निमित्तमात्रं प्रपद्य पुनरन्ये। स्वयमेव परिणमन्तेऽत्र पुद्गलाः कर्मभावेन ॥ -पु. सि., १२ -"जीवके रागादि परिणामों का निमित्त पाकर पुद्गलों का कर्म रूप में परिणमन स्वयमेव हो जाता है।" जैसे मेघ के अवलम्बन से सूर्य की किरणों का इन्द्रधनुषादिरूप परिणमन हो जाता है; उसी प्रकार स्वयं अपने चैतन्यमय भावों से परिणमनशील जीव के रागादिरूप परिणमन में पौद्गलिक कर्म निमित्त पड़ा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001388
Book TitleMahabandho Part 1
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages520
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy