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प्रस्तावना
तत्र क्रिया प्रदेशानां परिस्पन्दश्चलात्मकः।
भावस्तत्परिणामोऽस्ति धारावाोकवस्तुनि॥ --२,२५-२६ -"जीव तथा पुद्गल में भाववती तथा क्रियावती शक्ति पायी जाती है। शेष चार द्रव्यों में तथा पूर्व के दो द्रव्यों में भी भाववती शक्ति उपलब्ध होती है। प्रदेशों के संचालन रूप परिस्पन्दन को क्रिया कहते हैं। धारावाही एक वस्तु में जो परिणमन है, वह भाव है।"
इससे यह स्पष्ट होता है, कि जीव पुद्गल में ही प्रदेशों का हलन-चलन पाया जाता है। जीव और पुद्गल-विशेष का परस्पर में बन्धन होता है, कारण जीव में बन्ध का कारण वैभाविक शक्ति का सद्भाव है। यदि वैभाविक शक्ति न होती, तो जीव और पुद्गल का संश्लेष नहीं होता।
जिस प्रकार चुम्बक लोहे को अपनी ओर आकर्षित करता है, उसी प्रकार वैभाविक शक्ति विशिष्ट जीव रागादि भावों के कारण कार्मणवर्गणा तथा आहार, तैजस, भाषा तथा मनरूप नोकर्मवर्गणाओं को अपनी
ओर आकर्षित करता है। पुद्गलद्रव्य के तेईस प्रकारों में कार्मण वर्गणा नाम का एक भेद है। अनन्तानन्त परमाणुओं के प्रचयरूप वर्गणा होती है। रागादिभावों के कारण जीव का कर्मों के साथ सम्बन्ध होता है। जीव का अहित धर्म, अधर्म, आकाश तथा काल द्रव्यों-द्वारा नहीं होता है। पद्मनंदि पंचविंशतिका में कहा
“धर्माधर्मनभांसि काल इति मे नैवाहितं कुर्वते चत्वारोऽपि सहायतामुपगतास्तिष्ठन्ति गत्यादिषु । एकः पुद्गल एव सन्निधिगतो नोकर्म-कर्माकृतिः
वैरी बन्धकृदेष सम्प्रति मया भेदासिना खण्डितः ॥”-आलोचनाधिकार २५ -धर्म, अधर्म, आकाश और काल ये द्रव्य मेरा अहित नहीं करते। ये चारों गमनादि कार्यों में मेरी सहायता करते हैं। एक पुद्गल द्रव्य ही कर्म तथा नोकर्म रूप होकर मेरे समीप रहता है। अब मैं उस बन्ध के कारण रूप कर्म शत्रु का भेदविज्ञानरूपी तलवार के द्वारा विनाश करता हूँ।
परिभाषा - ‘परमात्मप्रकाश' में कर्म की इस प्रकार परिभाषा की गयी है
“विसयकसायहिं रंगियहं, जे अणुया लग्गति।
जीवपएसहं मोहियहं, ते जिण कम्म भणंति ॥६२॥" प्रवचनसार टीका में अमृतचन्द्रसूरि लिखते हैं- “क्रिया खल्वात्मना प्राप्यत्वात्कर्म, तन्निमित्तप्राप्तपरिणामः पुद्गलोऽपि कर्म।" (पृ. १६५)
–“आत्मा के द्वारा प्राप्य होने से क्रिया को कर्म कहते हैं। उसके निमित्त से परिणमन को प्राप्त पुद्गल भी कर्म कहा जाता है।" इसका अभिप्राय यह है कि आत्मा में कम्पनरूप क्रिया होती है। इस क्रिय निमित्त से पुद्गल के विशिष्ट परमाणुओं में जो परिणमन होता है, उसे कर्म कहते हैं। यह व्याख्या आध्य दृष्टि से की गयी है।
१. “अयस्कान्तोपलाकृष्टसूचीवत्तद्वयोः पृथक् । अस्ति शक्तिः विभावाख्या मिथो बन्धाधिकारिणी॥
-पंचा. २,४२
२. "देहोदयेण सहिओ जीवो आहरदि कम्मणोकम्म।
पडिसमयं सव्वंग तत्तायसपिंडओव्व जलं॥"-गो. क., गा.३ ३. “परमाणूहिं अणंताहि वग्गणसण्णा दु होदि एक्का हु।" -गो. जी., गा. २४४
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