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महाबंधे संजदाणं एवं चेव । णवरि धुविगाणं जह० अंतो०, असंजदे धुविगाणं मदिभंगो। पुरिस० पंचिंदि० समचदु० ओरालिय० अंगो० परघादुस्सा० पसत्थ. तस०४ सुभग-सुस्सर-आदे० उच्चा० जह० एग० । उक० तेत्तीसं सादिरे । तिरिक्खगदितिगं मणुसग० बजरिस० मणुसाणु० देवगदि०४ आयु. तित्थयरं च ओघं । सेसाणं जह० एग० । उक० अंतो०। चक्खु-दस० तम-पज्जत्तभंगो । णवरि सादा० जह० एग: । उक० अंतो० । अचक्खुद ओघ । णवरि साद चक्खुद भंगो०।
२५. किण्ण० णील० काउ०--पंचणा० णवदंस० मिच्छत्त० सोलसक० भयदु०
परिहार विशुद्धि संयमके विषयमें 'खुदाबंध' में लिखा है संजमाणुवादेण संजदा परिहारसुद्धिसंजदा संजदासंजदा केवचिरं कालादो होति ? जहण्णेण अंतोमुहुत्तं, उपक- . स्सेण पुवकोडिदेसूणा ( १४७, १४८, १४६ सूत्र )।
संयम मार्गणाके अनुसार संयत, परिहार शुद्धि संयत तथा संयतासंयत कितने कालतक रहते हैं ? कमसे कम अन्तर्मुहूर्त काल पर्यन्त अन्तर है। उत्कृष्ट से कुछ कम पूर्व कोटि है । धवला टीकामें लिखा है- "गर्भसे लेकर आठ वर्षोंसे संयमको प्राप्त कर और कुछ कम पूर्वकोटि वर्ष तक संयमका पालन कर व मरकर देवोंमें उत्पन्न हुए मनुष्यके कुछ कम पूर्वकोटि मात्र संयमकाल पाया जाता है। इसी प्रकार . परिहारशुद्धिसंयतका .भी उत्कृष्ट काल कहना चाहिए। विशेष इतना है कि सर्वसुखी होकर तीस वर्षोंको बिताकर पश्चात् वर्ष पृथक्त्वसे तीर्थ करके पादमूलमें प्रत्याख्यान नामक पूर्वको पढ़कर पुनः तत्पश्चात् परिहारशुद्धि संयमको प्राप्त कर और कुछ कम पूर्व कोटि वर्ष तक रहकर देवोंमें उत्पन्न हुए जीवके उपयुक्त काल प्रमाण कहना चाहिए । इस प्रकार अड़तीस वर्षों से कम पूर्व कोटि वर्षे प्रमाण परिहार शुद्धि संयमका काल कहा गया है। कोई आचार्य सोलह वर्षोंसे और कोई बाईस वर्षोंसे कम पूर्व कोटि वर्ष प्रमाण कहते हैं। इसी प्रकार संयतासंयतका भी उत्कृष्ट काल जानना चाहिए। विशेष यह है कि अन्तर्मुहू ते पृथक्त्वसे कम पूर्व कोटि वर्ष संयमासंयमका काल होता है । (क्षुद्रक बन्ध २, ७ पुस्तक,पृ० १६७) ।
खुद्दाबन्धका कथन - सामान्यतया संयम, परिहारविशुद्धि संयम, संयमासंयम, सामान्यकी अपेक्षा कहा गया है। महाबन्धका प्रतिपादन संयम, परिहारविशुद्धि संयम, संयमामंयममें बँधनेवाली कर्मप्रकृतियोंकी अपेक्षा किया गया है।
विशेष, ध्रुव प्रकृतियोंका जघन्य बन्धकाल अन्तर्मुहूर्त है, किन्तु असंयतोंमें ध्रुव प्रकृतियोंका बन्धकाल मत्यज्ञानके समान है । पुरुषवेद, पञ्चेन्द्रिय जाति, समचतुरस्रसंस्थान, औदारिक अंगोपांग, परघात, उच्छ्वास, प्रशस्त विहायोगति, त्रस ४, सुभग, सुस्वर, आदेय और उच्चगोत्रका जघन्य बन्धकाल एक समय, ज्कृष्ट साधिक ३३ सागर है। तिर्यञ्चगति-त्रिक, मनुष्यगति, वज्रवृषभसंहनन, मनुष्यानुपूर्वी, देवगति, ४ आयु तथा तीर्थंकरका ओघके समान काल है। शेषका जघन्य बन्धकाल एक समय, उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त है। चक्षुदर्शनमें त्रस पर्याप्तकोंका भंग जानना चाहिए । विशेष यह है कि सातावेदनीयका जघन्य एक समय, उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त प्रमाण बन्धकाल है । अचक्षुदर्शनमें ओघवत् है। यहाँ यह विशेष है कि साता वेदनीयका चक्षुदर्शन के समान भंग है।
२५. कृष्ण-नील-कापोत लेश्यामें-५ ज्ञानावरण, ९ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, १६ कषाय, भय, जुगुप्सा, तैजस-कार्मण, वर्ण ४ अगुरुलघु, उपघात, निर्माण तथा ५ अन्तरायोंका
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