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________________ ७१ पयडिबंधाहियारो उचा० पंचंत० जह• अंतो०, उक० छावट्टि. सागरोप० सादिरे । सादासा० हस्सरदि० अरदि० सो० आहारदुर्ग थिरादितिणियु० जह० एग० उक० अंतो० । अप्पच्चक्खाणावर०४ तित्थयरं जह० अंतो० । उक० तेत्तीसं सा० सादि० । अपचक्खाणा० (पचक्खाणा० ) ४ जह० अंतो० । उक्क० बादालीसं सा० सादि० । अथवा तेत्तीसं सा० सादिरे० परिजदि । दो-आयु ओघं । मणुसगदि-पंचगंजह ० अंतो० । उक्क० तेत्तीसं सा० । देवगदि०४ जह० एग० । उक० तिण्णि-पलिदो० सादि० । एवं ओधिदं० । एवं चेव सम्मादिहि । णवरि सादं ओघं । मणपज्जव०-पंचणा० छदसण० चदुसंज. पुरिस० भयदु० देवगदि० पंचिंदि० वेउ० तेजाक० समचदु० वेउचि० अंगोवं० वण्ण०४ देवगदि-पाओ० अगु०४ पसत्थ० तस०४ सुभग-सुस्सर-आदेज. णिमि० तित्थयरं उच्चा० पंचंत० जह० एग० । उक्क० पुवकोडिदेसू० । सादासा० चदुणो० आहारदुगं० थिरादि-तिण्णि-युग जह० एग० । उक्क० अंतो० । देवायु ओघं । २४. एवं संजदासामाइ० छेदो० । णवरि संजदे सादं ओघं। परिहार-संजदा अन्तरायका जघन्य बन्धकाल अन्तर्मुहूर्त, उत्कृष्ट साधिक ६६ सागर प्रमाण है। साता. असाता वेदनीय, हास्य-रति, अरति-शोक, आहारकद्विक और स्थिरादि तीन युगलका जघन्य एक समय, उत्कृष्ट अन्तर्महत बन्धकाल है। अप्रत्याख्यानावरण ४, तीर्थकरका जघन्य अन्तमुहूर्त, उत्कृष्ट साधिक ३३ सागर है। प्रत्याख्यानावरण ४ का जघन्य अन्तर्मुहूर्त, उत्कृष्ट साधिक ४२ सागर प्रमाण है। अथवा कुछ अधिक तेतीस सागर बन्धकाल जानना चाहिए । दो आयुका ओघके समान है। मनुष्यगति-पंचकका जघन्य बन्धकाल अन्तर्मुहूते, उत्कृष्ट ३३ सागर है । देवगति ४ का जघन्य एक समय, उत्कृष्ट साधिक तीन पल्य बन्धकाल है । अवधिदर्शनमें इसी प्रकार जानना चाहिए। सम्यग्दृष्टियोंमें भी इसी प्रकार जानना चाहिए । विशेष यह है कि साता वेदनीयका ओघके समान भंग जानना चाहिए। मनःपर्ययज्ञानमें - ज्ञानावरण,६ दशनावरण,४संज्वलन, पुरुषवेद, भय, जुगुप्सा, देवगति, पञ्चेन्द्रिय जाति, वैक्रियिक-तैजस- कार्मण शरीर, समचतुरस्रसंस्थान, वैक्रियिक अंगोपांग, वर्ण ४, देवगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, अगुरुलघु ४, प्रशस्तविहायोगति, त्रस ४, सुभग, सुस्वर, आदेय, निर्माण, तीर्थकर, उच्चगोत्र और ५ अन्तरायका जघन्य एक समय, उत्कृष्ट कुछ कम पूर्वकोटि बन्ध विशेषार्थ - एक कोटि पूर्वकी आयुवाले किसी मनुष्यने गर्भकालसे लेकर आठ वर्ष अन्तर्मुहूर्त प्रमाण काल व्यतीत करके सकल संयमी बन मनःपर्ययज्ञानको उत्पन्न किया। जीवन भर मनःपर्ययसंयुक्त रहा, किन्तु मरणके अन्तर्मुहूर्त रहनेपर नीचेके गुणस्थानमें आकर मरण किया, इस प्रकार देशोनपूर्व कोटि काल है। साता-असाता वेदनीय, ४ नोकषाय, आहारकद्विक, स्थिरादि तीन युगलका जघन्य एक समय, उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त बन्धकाल है । देवायुका ओघके समान है । २४. इस प्रकार संयत तथा सामायिक छेदोपस्थापना संयतमें जानना चाहिए । इतना विशेष है कि संयम मार्गणामें साता वेदनीयका ओघवत् जानना चाहिए। परिहारविशुद्धिसंयतों तथा संयतासंयतोंमें इसी प्रकार जानना चाहिए। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001388
Book TitleMahabandho Part 1
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages520
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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