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________________ पयडिबंधाहियारो तेजाक० वण्ण०४ अगु० उप० णिमि० पंचंत० जह० अंतो०, उक्क ० तेत्तीसं सत्तारससत्तसा० सादिरे । सादासा० छण्णोक० दोगदि० चदुजादि० वेउवि० पंचसं० वेउवि० अंगो० पंचसंघ० दो-आणु० आदाउज्जो० अपसत्थ० थावरादि०४ थिरादि-दोणियुग० दूभग-दुस्सर-अणादेज्ज ० जह० एग । उक्क • अंतो० । पुरिस० गणुस० समचदु० वज्जरिस० मणुसाण० पसत्थवि० सुभगं० सुस्स० आदेज्ज ० उच्चा० जह० एग० । उक्क ० तेत्तीसं सत्तार [स] सत्त-साग० देसू० । चदुआयु० जहण्ण० अंतो० । तिरिक्खगदि-पंचिंदि० ओरालि० ओरालि. [ अंगो० ] तिरिक्खाणुपु० परघादु० तस०४ गीचा० जह० एग० । उक्क० तेत्तीसं-सत्तारस-सत्तसागरो० सादिरे० । णवरि जघन्य बन्धकाल अन्तर्मुहूर्त, उत्कृष्ट बन्धकाल ३३ सागर है, १७ सागर है, सात सागर प्रमाण है। विशेषार्थ - नीललेश्याधारी कोई जीव कृष्णलेश्यायुक्त हो, उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त प्रमाण विश्राम कर मरण करके सातवीं पृथ्वीमें ३३ सागरप्रमाण कृष्णलेश्यास हित रहा। मरण कर अन्तर्मुहूर्त कालपर्यन्त भावनावश वही लेश्या रही। इस कारण दो अन्तर्मुहूर्तोसे अधिक ३३ सागरोपम कृष्णलेश्याका उत्कृष्ट काल रहा । मिथ्यात्वादिका बन्धकाल भी इसी प्रकार जानना चाहिए। इसी प्रकार पाँचवीं पृथ्वी में उत्पत्तिकी अपेक्षा नीललेश्यामें साधिक १७ सागर तथा तीसरे नरककी अपेक्षा कापोत लेश्यामें साधिक सात सागर प्रमाण बन्धकाल कहा है। (ध० टी०,काल०,४५७-४५८) साता-असाता वेदनीय, ६ नोकपाय, दो गति, ४ जाति, वैक्रियिक शरीर, ५ संस्थान, वैक्रियिक अंगोपांग, ५ संहनन, दो आनुपूर्वी, आताप, उद्योत, अप्रशस्त विहायोगति, स्थावरा. दिचतुष्क, स्थिरादि दो युगल, दुर्भग, दुस्वर, अनादेयका जघन्य बन्धकाल एक समय, उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त काल है । पुरुषवेद, मनुष्यगति, समचतुरस्रसंस्थान, वनवृषभनाराचसंहनन, मनुष्यानुपूर्वी, प्रशस्त विहायोगति, सुभग, सुस्वर, आदेय और उच्चगोत्रका बन्धकाल जघन्यसे एक समय, उत्कृष्ट से देशोन ३३ सागर, १७ सागर तथा ७ सागर है। विशेषार्थ - कोई २८ मोहनीयकी सत्तायुक्त मिथ्यात्वी जीव तीसरी, पाँचवीं तथा सातवीं पृथ्वीमें उत्पन्न हुआ। वहाँ पर्याप्ति पूर्ण करके दूसरे अन्तर्मुहूर्त में विश्राम लिया। तथा तीसरेमें विशुद्ध होकर चौथे अन्तर्मुहूर्त में वेदक सम्यक्त्व धारण किया और तीसरी तथा पाँचवीं पृथ्वीमें सात तथा १७ सागर प्रमाण क्रमशः पुरुषवेदादिका बन्ध किया, पश्चात् मरण किया । अतः सात तथा सत्रह सागर में मिथ्यात्व दशाके तीन अन्तर्मुहूर्त कम होते हैं। सातवीं पृथ्वीमें ६ अन्तर्मुहूर्त कम होते हैं। कारण वहाँ से मिथ्यात्वके बिना निर्गमन नहीं होता है । मरणके एक अन्तर्मुहूर्त शेष रहनेपर मिथ्यात्व गुणस्थानको प्राप्त हुआ। दूसरे अन्तर्मुहूर्त में आयुबन्ध किया, तीसरेमें विश्राम किया, बाद में निर्गमन किया। इस प्रकार पूर्वके तीन और पश्चात्के तीन इस प्रकार ६ अन्तर्मुहूर्त कम तेतीस सागर प्रमाण बन्धकाल है । ( ध० टी०, काल०,३५९, ३६२) __ चार आयुका जघन्य तथा उत्कृष्ट बन्धकाल अन्तर्मुहूर्त प्रमाण है । तियचगति, पंचेन्द्रिय जाति, औदारिक शरीर, औदारिक [ अंगोपांग ], तिर्यंचानुपूर्वी, परघात, उच्छ्वास, त्रस ४ तथा नीच गोत्रका जघन्य एक समय, उत्कृष्ट साधिक ३३ सागर है, १७ सागर तथा ७ सागर Jain Education Interna Real For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001388
Book TitleMahabandho Part 1
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages520
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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