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पयडिबंधाहियारो
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आहारदुग० वण्ण०४ वगु०४ आदाउजो० णिमिणतित्थयर - पंचंतराइगाणं बंधगा केवडिखेचे ? लोगस्स असंखेजदिभागे । अबंधगा केवलिभंगो कादव्वो । सादबंधगा केवलिभंगो । अबंधगा लोगस्स असंखेज्जदिभागे । असादबंधगा लोगस्स असंखेजदिभागे । अबंधगा केवलिभंगो । दोष्णं पगदीणं बंधगा. केवलिभंगो। अबंधगा लोगस्स असंखेजदिभागो (गे) । इत्थि० पुरिस० णवुंसग-बंधगा लोगस्स असंखेजदिभागे । अबंधगा केवलिभंगो । एवं सव्वपगदीणं वेदभंगो कादव्वो एवं पंचिंदिय-तस० तेसिं
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९ दर्शनावरण, मिध्यात्व, १६ कषाय, भयद्विक, तैजस, कार्मण, आहारकद्विक, वर्ण ४, अगुरुलघु ४, आतप, उद्योत, निर्माण, तीर्थंकर तथा पाँच अन्तरायोंके बन्धक कितने क्षेत्र में रहते हैं' ? लोकके असंख्यातवें भागमें रहते हैं । अबन्धकों में केवलीके समान भंग जानना चाहिए अर्थात् लोकका असंख्यातवाँ भाग, असंख्यात बहुभाग अथवा सर्वलोक है ।
विशेष - केवलीभंग में लोकका असंख्यातवाँ भाग क्षेत्र दंड तथा कपाटसमुद्घातकी अपेक्षा है । असंख्यात बहुभाग क्षेत्र प्रतरसमुद्धातकी तथा सर्वलोक लोकपूरणसमुद्घातकी अपेक्षा है।
सातावेदनीयके बन्धकोंमें केवलीके समान भंग है। अबन्धकलोकके असंख्यात बें भागमें रहते हैं ।
असाताके बन्धक लोकके असंख्यातवें भागमें रहते हैं । अबन्धकों में केवलीके समान भंग है। दोनों प्रकृतियों के बन्धकों में केवलोके समान भंग है । अबन्धकों में लोकका असंख्यातवाँ भाग भंग है । स्त्री, पुरुष, नपुंसक वेदके बंधक लोकके असंख्यातवें भाग में पाये जाते हैं । अबंधकोंमें केवलीके समान भंग जानना चाहिए । इस प्रकार सर्व प्रकृतियों में वेदके समान भंग है।
विशेषार्थ - वेदना, कषाय, वैक्रियिक, तैजस, और आहारक समुद्घातको प्राप्त मनुष्य, मनुष्य-पर्याप्त तथा मनुष्यनी चार लोकोंके असंख्यातवें भाग में रहते हैं। इतना विशेष है कि मनुष्यनियों में तैजस तथा आहारक समुद्धात नहीं होते । मारणान्तिक समुद्धातको प्राप्त उक्त तीन प्रकार के मनुष्य तीन लोकोंके असंख्यातवें भागमें तथा मनुष्यलोक और तिर्यग्लोक के असंख्यातगुणे क्षेत्र में रहते हैं, क्योंकि यहाँ मनुष्य अपर्याप्तकों का क्षेत्र प्रधान है । इतना विशेष है कि मनुष्य पर्याप्त और मनुष्यनियोंका मारणांतिक क्षेत्र चार लोकोंके असंख्यातवें भाग तथा मानुष क्षेत्र से असंख्यातगुणा है । इसी प्रकार दण्ड और कपाट क्षेत्रोंका भी प्रमाण कहना चाहिए। इतना विशेष है कि कपाट क्षेत्र तिर्यग्लोकके संख्यातवें भाग प्रमाण है । प्रतरसमुद्धातकी अपेक्षा लोकके असंख्यात बहुभागों में अवस्थान होता है, क्योंकि "वादवलपसु जीवपदेसाणमभावादो" वातवलयों में जीवप्रदेशोंका अभाव रहता है । लोकपूरण समुद्धातकी अपेक्षा सर्वलोक में अवस्थान होता है, क्योंकि इस अवस्था में जीवप्रदेशोंसे रहित लोकाकाशके प्रदेशोंका अभाव है ( जीवपदेस - विरहिद- लोगागास-पदेसा भावादो ) | ( खुदाबंध, टीक पृ० ३१० ) ।
१. मणुसगदीए मणुसा मणुसपज्जत्ता मसिणी सत्याणेण उववादेण केवडिखेत्ते ? लोगस्स असंखेज्जदिभागे । समुग्धादेण केवडिखेत्ते ? लोगस्स असंखेज्जदिभागे । असंखेज्जेसु वा भाएसु सव्वलोगे वा - सू० ८-१२, ० बं० । २. ६० टी०, क्षे०, पृ० ४८ ।
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