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________________ २१२ महाबंधे बंधगा सबलोगे । अबंधगा णत्थि । एवं सव्वाणं पगदीणं । णवरि तिण्णि आयु वेउबियछक्कस्स बंधगा केवडिखेत्ते ? लोगस्स असंखेजदिभागे। अबंधगा सबलोगे । चदुआयु० दोअंगो० छस्संघ परघादुस्सा० आदाउजो० दोविहा० दोसराणं बंधगा अबंधगा केवडिखेले ? सव्वलोगे। थीणगिद्धितियं मिच्छत्त अट्ठकसा० ओरालि. बंधगा केवडिखेत्ते? सबलोगे। अबंधगा लोगस्स असंखेजदिमागे। एवं मदि० सुद० असंज० तिण्णिलेस्सा-अब्भवसिद्धि० मिच्छादि० असण्णि ति। १८८. मणुस०३-पंचणा० णवदंस० मिच्छ० सोलसक० भयदु. तेजाक० दोनों वेदनीयोंके बन्धक सर्वलोकमें रहते हैं ; अबन्धक नहीं हैं। इसी प्रकार सर्व प्रकृतियोंमें जानना चाहिए। विशेष यह है कि ३ आयु, वैक्रियिकषटकके बन्धक कितने क्षेत्रमें रहते हैं ? लोकके असंख्यातवें भागमें रहते हैं ; अबन्धक सर्वलोकमें रहते हैं। ४ आयु, २ अंगोपांग, ६ संहनन, परघात, उच्छ्वास, आतप, उद्योत, २ विहायोगति, २ स्वरके बन्धक, अबन्धक कितने क्षेत्रमें रहते हैं ? सर्वलोक में। स्त्यानगृद्धि ३, मिथ्यात्व, ८ कषाय तथा औदारिक शरीरके बन्धक कितने क्षेत्रमें रहते हैं ? सर्वलोकमें रहते हैं। अबन्धक लोकके असंख्यातवें भागमें रहते हैं। विशेष-इनके अबन्धक देशसंयमी होंगे उनका क्षेत्र यहाँ कहा है।' विशेषार्थ-तिर्यंचों में स्वस्थान-स्वस्थान, विहारवत् स्वस्थान, वेदना-कषाय-वैक्रियिकमारणान्तिक समुद्धात और उपपाद ये पद होते हैं: शेष नहीं होते हैं । तियचोंका क्षेत्र सर्व. लोक कहा है, इसपर धवलाटीकाकार कहते हैं, सर्वलोकमें तिथंच रहते हैं, क्योंकि वे अनन्त है । अनन्त होनेसे वे लोकमें नहीं समाते ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिए, क्योंकि लोकाकाशमें अनन्त अवगाहन शक्ति संभव है। विहारवत्स्वस्थान क्षेत्र तीन लोकोंके असंख्यात भाग, तिर्यग्लोकके संख्यातवें भाग और अढ़ाई द्वीपसे असंख्यातगुणा है, क्योंकि त्रस पयोप्त तिर्यचोंका लोकके संख्यातवें भागमें विहार पाया जाता है। वैक्रियिक समुद्धातका क्षेत्र चार लोकोंके असंख्यातवें भाग और मनुष्यक्षेत्रसे असंख्यातगुणा है, क्योंकि नियंचोंमें विक्रिया करनेवाली राशि पल्योपमके असंख्यातवें भाग मात्र घनांगुलोंसे गुणित जगश्रेणी प्रमाण है, 'गुरूवदेसादो' क्योंकि ऐसा गुरुका उपदेश है । (खु० ध० पृ० ३०५) मत्यज्ञान, श्रुताज्ञान, असंयम, कृष्णादि तीन लेश्या, अभव्यसिद्धिक, मिथ्यादृष्टि तथा असंज्ञी पर्यन्त इसी प्रकार जानना चाहिए। १८८. मनुष्यत्रिक ( मनुष्यसामान्य, मनुष्यपर्याप्त, मनुष्यनियों) में - ५ ज्ञानावरण, १. पटखं,खे० सू०८ । २. णाणाणुवादेण मदिअण्णाणी सुदअण्णाणी णqसयवेदभंगो ( सूत्र ८०) णवंसयवेदा सत्थाणेण समग्घादेण उववादेण केवडिखेते? सबलोए (७१, ७२)। असंजदा (९३) । लेस्साणुवादेण किण्हलेस्सिया णीललेस्सिया काउलेस्सिया असंजदभंगो ( १०१)। भवियाणुवारेण भवसिद्धिया-अभवसिद्धिया सत्थाणेण समुग्धादेण उववादेण केवडिखेत्ते ? सबलोगे (१०६, १०७)। मिच्छाइट्ठी असंजदभंगो (११६)। असण्णी सत्थाणेण समुग्धादेण उववादेण केवडिखेत्ते ? सबलोगे। -सू० ११६, १२०, खु० ० ', पृ. ३६५। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001388
Book TitleMahabandho Part 1
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages520
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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