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महाबंधे जह० एग०, उक्क० अंतो० । भवसिद्धिया ओघं । णवरि अणादिओ अपज्जवमिदो णथि।
२६. खइगं-आभिणिभंगो। णवरि धुविगाणं जह० अंतो०, उक्क० तेत्तीसं० सादिरे० । मणुसगदि-पंचगं जह० चदुरासीदि-वस्स-सहस्साणि, उक्क ० तेत्तीसं सा० । सादावे० दो आयु० देवगदि०४ ओघं । वेदगसं०-धुविगाणं जह० अंतो०, उक्क० बावहिसागरो० । मणुसगदिपंचग जह० अंतो०, उक्क० तेत्तीसं सा० । देवगदि०४ जह० अंतो०, उक्क० तिण्णि-पलिदोप० देसू० । सेसं ओधिभंगो । उवसम०-पंचणा० छदंस० बारसक० पुरिस० भयदुगुं० मणुसगदिपंचगं पंचिदिय० तेजाकम्म० समचदु० वण्ण०४ अगु०४ पसत्थवि० तस०४ सुभग-सुस्सर-आदेज्ज णिमिणं तित्थयरं उच्चागो० पंचंत० जहण्णु० अंतो० । सेसाणं पगदी० जह० एग०, उक्क० अंतो० ।
वनवृषभसंहननका जघन्य एक समय, उत्कृष्ट ३३ सागर बन्धकाल है। शेष प्रकृतियोंका जघन्य बन्धकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त प्रमाण है। भव्यसिद्धिकोंमें - ओघके समान है । विशेष, यहाँ अनादि अनन्त रूप भंग नहीं है ।
• २६. क्षायिकसम्यक्त्वमें - आभिनिबोधिक ज्ञानके समान भंग है। विशेष ध्रुव प्रकृतियोंका जघन्य बन्धकाल अन्तर्मुहूर्त तथा उत्कृष्ट साधिक ३३ सागर है। मनुष्यगति ५ का जघन्य बन्धकाल ८४ हजार वर्ष और उत्कृष्ट ३३ सागर है। सातावेदनीय, २ आयु, देवगति ४ का ओघके समान है। वेदकसम्यक्त्वमें ध्रुव प्रकृतियोंका जघन्य बन्धकाल अन्तमुहूर्त, उत्कृष्ट ६६ सागर है।।
विशेष - वेदकसम्यक्त्वकी उत्कृष्ट स्थिति ६६ सागर प्रमाण है । इससे ध्रुव प्रकृतियोंका बन्धकाल भी उतना ही कहा है।
मनुष्यगति ५ का जघन्य बन्धकाल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट ३३ सागर है। देवगति ४ का जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट कुछ कम तीन पल्य है। शेष प्रकृतियोंका अवधिज्ञानके समान बन्धकाल है। उपशमसम्यक्त्वमें - ५ ज्ञानावरण, स्त्यानगृद्धित्रिकके बिना ६ दर्शनावरण, १२ कषाय, पुरुषवेद, भय, जुगुप्सा, मनुष्यगति ५, पंचेन्द्रिय जाति, तैजस-कार्माण शरीर, समचतुरस्त्र संस्थान, वर्ण ४, अगुरुलघु ४, प्रशस्त विहायोगति, त्रस ४, सुभग, सुस्वर,
निमोण, तीर्थकर तथा उच्चगोत्र एवं ५ अन्तरायोंका जघन्य और उत्कृष्ट बन्धकाल अन्तर्मुहूर्त प्रमाण है। शेष प्रकृतियोंका जघन्य एक समय, उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त है।
१. "असंजदसम्मादिट्ठी केवचिरं कालादो होति ? एगजोवं पडुच्च जहण्णण अंतोमहत्तं, उक्कस्सेण तेत्तीससागरोवमाणि सादिरेयाणि ।....."खइयसम्मादिट्टीसु असंजदसम्मादिटिप्पहुडि जाव अजोगिकेवलि त्ति ओघं ।"-षट् खं०,काल०,१४, १५, ३१७।।
२. "उवसमसम्मादिट्टीसु असंजदसम्मादिट्ठी संजदासजदा केवचिरं कालादो होंति ? एकजीवं पडुच्च जहण्णेण अंन्तोमुहत्तं, उक्कस्सेण अनोमुहत्तं। पमत्तसजदप्पहुडि जाव उवसंतकसायवीदरागछदुमत्थात्ति केवचिरं कालादो होति ? एकजीवं पडुच्च जहण्णेण एगसमयं, उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं ।” -पद खं०, काल, ३१९-२४।
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