________________
महाधंधे
मिश्र गुणस्थानमें आयुका बन्ध न होनेसे देवायुका अबन्ध हो गया। इस प्रकार ३२ प्रकृतियों के घटानेसे मिश्र गुणस्थानमें ६९ प्रकृतियोंका बन्ध होता है। अविरत सम्यक्त्वीके . देवायु तथा तीर्थकरका बन्ध प्रारम्भ हो जानेसे ७१ का बन्ध होता है। अप्रत्याख्यानावरण ४ का देशविरतमें बन्ध न होनेसे वहाँ ६७ प्रकृतियोंका बन्ध होता है। प्रमत्तगुणस्थानमें ६३ प्रकृतियोंका बन्ध है, कारण, यहाँ प्रत्याख्यानावरण ४ का बन्ध नहीं है। अप्रमत्तसंयतके अस्थिर, असाता, अशुभ, अरति, शोक, अंयश-कीर्ति इन छहका बन्ध नहीं होगा, किन्तु यहाँ आहारकद्विकका बन्ध होनेसे,५६ का बन्ध होता है। अपूर्वकरणमें ५८ का बन्ध है, कारण, यहाँ देवायुका बन्ध नहीं होता, देवायुकी बन्धव्युच्छित्ति अप्रमत्त गुणस्थानमें हो जाती है । अनिवृत्तिकरणमें बन्धं योग्य २२ हैं, कारण, अपूर्व करण, गुणस्थानमें निद्रा, प्रचला, तीर्थकर, आहारकद्विक आदि कुल ३६ प्रकृतियोंकी बन्धव्युच्छित्ति हो जानेसे २२ प्रकृति ही बन्धके लिए शेष रहती हैं। सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थानमें १७ का बन्ध होता है, कारण, अनिवृत्तिकरणमें पुरुषवेद तथा ४ संज्वलन कषायोंकी बन्धव्युच्छित्ति हो जाती है। उपशान्तकषायमें केवल एक सातावेदनोयका ही बन्ध होता है। सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थानमें ५ ज्ञानावरण, ४ दर्शनावरण, ५ अन्तराय, यशाकीर्ति तथा उच्चगोत्रकी बन्धव्युच्छित्ति हो जाती है। क्षीण. कषाय तथा सयोगीजिनके एक सातावेदनीयका ही बन्ध होता है। अयोगकेवलीके बन्ध नहीं है, कारण वहाँ बन्धके हेतुओंका अभाव हो चुका है।
सामान्य मनुष्य, मनुष्य पर्याप्तक, मनुष्यनीमें मनुष्यगति के समान भंग है।
लब्ध्यपर्याप्तक मनुष्यमै - तीर्थकर, आहारकद्विक, देवायु, नरकायु तथा वैक्रियिकषट्क इन ११ प्रकृतियोंको बन्धके अयोग्य कहा है। अतः उसके १०६ प्रकृतिका बन्ध होगा। इसके केवल मिथ्यात्व गुणस्थान होता है।
निर्वृत्यपर्याप्तक मनुष्यमें - चार आयु, नरकद्विक तथा आहारकद्विक इन आठ प्रकृतियोंको बन्धके अयोग्य कहा है,अतः उसके १२०-८ = ११२ बन्ध योग्य हैं । यहाँ मिथ्यात्व, सासादन, असंयतप्रमत्त तथा सयोगकेवली गुणस्थान होते हैं।
देवगति - यहाँ सूक्ष्मत्रय, विकलत्रय, सुरचतुष्क, नरकद्विक, नरकायु, देवायु, आहारकद्विक, इन सोलह प्रकृतियोंका बन्ध न होनेसे बन्धयोग्य १२०-१६=१०४ कही हैं। देवगतिमें मिथ्यात्वादि चार गुणस्थान होते हैं। भवनत्रिक तथा कल्पवासी स्त्रियों में तीर्थकरका अभाव होता है "भवणतिए णस्थि तिस्थयरं", "कप्पिस्थीसु ण तित्थं"। उनके १०३ प्रकृतियाँ बन्धयोग्य हैं। सौधर्म, ईशान स्वर्गवालोंके तीर्थकरका बन्ध होता है। इससे १०४ प्रकृतियाँ बन्धयोग्य कही हैं। सनत्कुमारादि सहस्रार स्वर्ग पर्यन्त एकेन्द्रिय स्थावर तथा आतापका बन्ध न होनेसे १०४-३=१०१ बन्धयोग्य हैं। आनत, प्राणत, आरण, अच्युत तथा नव प्रैवेयकोंमें तिथंच गति, तिथंचगत्यानुपूर्वी, तिर्यंचायु, उद्योत इन शतारचतुष्क प्रकृतियोंका बन्ध न होनेसे १०१-४=९७ प्रकृतियोंको बन्धयोग्य कहा है। नव अनुदिश तथा पंच अनुत्तर विमानों में सम्यक्त्वी जीव ही उत्पन्न होते हैं, अतः उनके अविरत सम्यक्त्वीके बन्धयोग्य ७२ प्रकृतियाँ कही गयी हैं।
निवृत्यपर्याप्तक भवनत्रिक तथा कल्पवासिनियोंमें तिथंचायु तथा मनुष्यायुका बन्ध न होनेसे १०३-२=१०१ बन्ध योग्य हैं। यहाँ मिध्यात्व तथा सासादन गुणस्थान होते
१. कपित्थीसु तित्थं सदरसहम्सारगो त्ति तिरियदुगं ।
निरियाऊ ऊन्जोवो अस्थि तदो पत्थि सदरचऊ ।। गो० क०,११२ ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org