SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 174
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पडबंधाहियारो ४९ को बंध० १ मिच्छादि० साससम्मा० असंजद ० संजदासंजदा त्ति बंधा । एदे बं० अवसेसा अबंधा एवं पंचिंदिय- तिरिक्ख ०३ । पंचिंदिय-तिरिक्ख-अपज्जत-पंच णाणा० व दंस० सादासा० मिच्छ०- सोलसक० णवणोक० - तिरिक्खमणुसायुतिरिक्खमणुसगदि-पंचिंदि ० ( पंचजा० ) - ओरालि० तेजाकम्म० छस्संठाणं ओरालियसरीर - अंगोवं ० छस्संघड ० - वण्ण ०४ - दो आणुपु० -अगुरुगल हुग ०४ - आदावुज्जो०दोविहा० - तसादिदसयुगलं णिमिणं णीचुच्चागो०- पंचतरा० को बं० १ सवे बंधा, अधात्थि । एवं सव्व - अपज्जत्ताणं सव्व - एइंदियाणं सव्चविगलिंदि० । "" [ अत्र ताड़पत्रं त्रुटितम् । ] सासादन सम्यक्त्वी, असंयत सम्यक्त्वी तथा देश संयमी बन्धक हैं । ये बन्धक हैं। शेष अबन्धक हैं । पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च पर्याप्तक, पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च योनिमतीमें तिर्यञ्चों के समान भंग जानना चाहिए । पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च लब्ध्यपर्याप्तकोंमें- ५ ज्ञानावरण, ९ दर्शनावरण, साता, असाता, मिथ्यात्व, १६ कषाय, ६ नोकषाय, तिर्यवायु, मनुष्यायु, तिर्यञ्चगति, मनुष्यगति, पचेन्द्रिय( जाति पंच जाति) औदारिक- तैजस-कार्माण शरीर, ६ संस्थान, औदारिक शरीरांगोपांग, ६ संहनन, वर्ण ४, मनुष्य तिर्यञ्चानुपूर्वी, अगुरुलघु ४ (अगुरुलघु, उपघात, परघात, उच्छ्वास), आताप, उद्योत, दो विहायोगति, त्रसादि दस युगल ( त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक, स्थिर, शुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय, यशःकीर्ति ), निर्माण, नीचगोत्र, उच्चगोत्र, तथा ५ अन्तरायका कौन बन्धक हैं ? सर्व बन्धक हैं; अबन्धक नहीं हैं । सम्पूर्ण लब्ध्यपर्याप्तकों, सम्पूर्ण एकेन्द्रियों, सर्व विकलेन्द्रियोंमें इसी प्रकार जानना चाहिए | विशेष - लब्ध्यपर्याप्तक' तियंचोंमें नरकायु, देवायु तथा वैक्रियिक पटकका अभाव रहने से इनकी गणना नहीं की गयी है। इनके मिथ्यात्व गुणस्थान ही पाया जाता है । [ ताड़पत्र नष्ट हो जानेसे इस प्रकरणका आगामी विषय नष्ट हो गया है। ग्रन्थके प्रकरसे ज्ञात होता है कि आचार्य महाराजने मनुष्य गति आदि मार्गणाओंकी अपेक्षा 'बंध सामित्त-विचय' प्ररूपणाका वर्णन दिया होगा । सम्बन्ध मिलानेकी दृष्टिसे श्री गोम्मटसार कर्मकाण्डके आश्रयसे कुछ प्रकाश डाला जाता है ] मनुष्यगति - यहाँ मिथ्यात्वादि चौदह गुणस्थान हैं । बन्ध योग्य १२० प्रकृतियाँ हैं । यहाँका वर्णन ओघवत् जानना चाहिए । विशेष यह है कि मिध्यात्वं गुणस्थानमें तीर्थंकर, आहारकद्विकका बन्ध न होनेसे शेष ११७ प्रकृतियोंका बन्ध होता है । सासादन गुणस्थानमें मिथ्यात्वादि १६ प्रकृतियोंका बन्ध न होनेसे बन्ध १०१ का होता है । मिश्र गुणस्थान में ६९ बन्ध होता है । यहाँ सासादन गुणस्थान में बन्ध-व्युच्छिन्न होनेवाली अनन्तानुबन्धी आदि २५ प्रकृतियोंका बन्ध नहीं होगा। इसके सिवाय मनुष्यगति द्विक, मनुष्यायु, वज्रवृषभनाराच संहनन, औदारिक शरीर, औदारिकशरीराङ्गोपाङ्ग इन छह प्रकृतियोंकी भी सासादन गुणस्थान में बन्धव्युच्छित्ति होती है । साधारणतया इनकी अविरत में बन्धव्युच्छित्ति होती थी । १. सुरणिरयाउ अपुण्णे वेगुव्वियछक्कमवि णत्थि || गो० क०, गा० १०९ । ७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001388
Book TitleMahabandho Part 1
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages520
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy