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१२. तिरिक्खेसु-पंचणाणावरणं छदंसणा ० सादासादं अटुक० सत्तणोक० देवग दि० पंचिंदि० वेउब्विय- तेजा क० समचदु० वेगुव्वि० अंगो० - वण्ण०४ - देवग दिपा ०. अगुरुग ०४ - पसत्थवि० - तसं ०४ - थिराथिर-सुभासुभ-सुभग- सुस्सर-आदेज्ज-जस गित्ति अजसगित्ति-णिमि० उच्चागो० पंचअंतराइ० को बं० १ मिच्छादिट्ठि याव संजदासंजदा ि सव्वे बंधा अबंधा णत्थि । थीण गिद्धितियं अनंताणुबंधि० ४ - इत्थि वे० - तिरिक्खायुम सायु - तिरिक्खगदि- मणुसग दि-ओरालिय० चदुसंठा० ओरालिय० अंगो०- पंच संघड ०दोआणुपुव्वि० उज्जोवं अप्पसत्थवि० दूर्भाग- दुस्सर-अणादे० णीचा०को ब ० १ मिच्छादिट्टि - सासण० । एदे ब०, अवसेसा अब ० | मिच्छत्तदंडओ ओघो । अपच्चक्खा ०४ को ब • १ मिच्छादि० याव असंजदसम्मादिट्ठि त्ति । एदे ब ं, अवसेसा [अबंधा] | देवायु०
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विशेषार्थ - सातवीं पृथ्वीवाला मरकर नियमसे तिर्यञ्च होता है । इस कारण वहाँ मनुष्यायुका बन्ध नहीं बताया है' । मरण मिथ्यात्वगुणस्थानमें ही होता है । तिर्यञ्चायुका बन्ध मिथ्यात्वगुणस्थानमें ही होता है । मनुष्यद्विक तथा उच्चगोत्रका बन्ध मिश्र तथा अविरतसम्यक्त्व गुणस्थान में ही होता है, नीचे नहीं होता है ।
१२. तिर्यञ्चोंमें-५ ज्ञानावरण, ६ दर्शनावरण, साता, असाता, प्रत्याख्यानावरण तथा संज्वलन रूप ८ कषाय, स्त्रीवेद नपुंसकवेद बिना सात नोकषाय, देवगति, पञ्चेन्द्रिय जाति, वैक्रियिक, तैजस, कार्माण शरीर, समचतुरस्रसंस्थान, वैक्रियिक अंगोपांग, वर्ण ४, देवगति प्रायोग्यानुपूर्वी, अगुरुलघु ४, प्रशस्त विहायोगति, त्रस ४ ( त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक), स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय, यशःकीर्ति, अयशः कीर्ति, निर्माण, उच्चगोत्र तथा ५ अन्तरायोंका कौन बन्धक है ? मिथ्यादृष्टिसे लेकर देशसंयमी पर्यन्त सर्वबन्धक हैं । अबन्धक नहीं हैं ।
स्त्यानगृद्धित्रिक, अनन्तानुबन्धी ४, स्त्रीवेद, तिर्यञ्चायु, मनुष्यायु, तिर्यगति, मनुष्यगति, औदारिक शरीर, ४ संस्थान, औदारिक अङ्गोपाङ्ग, ५ संहनन, दो आनुपूर्वी ( तिर्यञ्च, मनुष्यानुपूर्वी ), उद्योत, अप्रशस्त विहायोगति, दुभंग, दुःस्वर, अनादेय तथा नीचगोत्रका कौन बन्धक है ? मिध्यादृष्टि तथा सासादन सम्यग्दृष्टि बन्धक हैं । ये बन्धक हैं । शेष अन्धक हैं । मिथ्यात्व दण्डकमें ओघवत् जानना चाहिए ।
विशेष - मिथ्यात्व, हुण्डक संस्थानादि सोलह प्रकृतियाँ मिथ्यात्व दण्डकमें सम्मिलित हैं । उनके बन्धक मिथ्यादृष्टि होते हैं । वे बन्धक हैं, शेष अबन्धक हैं।
अप्रत्याख्यानावरण ४ का कौन बन्धक है ? मिध्यादृष्टिसे लेकर असंयत सम्यग्दृष्टि पर्यन्त बन्धक हैं | ये बन्धक हैं। शेष अबन्धक हैं । देवायुका कौन बन्धक है ? मिध्यादृष्टि,
१. "छट्टो त्तिय मणुत्राऊ चरिमे मिच्छेव तिरियाऊ ||" - गो० क० गा० १०६ । २. वज्रवृषभसंहनत, औदारिकद्विक, मनुष्यगति, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, मनुष्यायु इन छह प्रकृतियोंकी "उवरि छण्हं च छिदो सासणसम्मे हवे णियमा ” - ( गो० क०, १०८ गा० ) के अनुसार सासादन में बंधव्युच्छित्ति होती हैं, अतः असंप्राप्तास्पाटिकासंहननके बिना शेष ५ संहनन कहे गये हैं ।
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