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पडबंधाहियारो
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हैं । सम्यक्त्वी जीवकी उत्पत्ति भवनत्रिक तथा देवांगनाओंमें नहीं होती इससे यहाँ पूर्वोक्त दो गुणस्थान होते हैं । सौधर्मेन्द्रकी इन्द्राणीकी पर्याय में भी सम्यक्त्वीका उत्पाद नहीं होता । जन्म धारणके पश्चात् पर्याप्त अवस्थामें सम्यक्त्वकी उत्पत्तिका निषेध नहीं है । सौधर्म ईशान स्वर्ग में निर्वृत्यपर्याप्तावस्था में तीर्थंकर प्रकृतिका बन्ध होनेसे वहाँ बन्धयोग्य १०१+ १ = १०२ कही गयी हैं ।
सनत्कुमारादि सहस्रार स्वर्ग पर्यन्त निर्वृत्यपर्याप्त अवस्थामें मनुष्यायु तथा तिर्यंचायुका बन्ध न होनेसे ९९ प्रकृतियोंका बन्ध होता है । उनके पर्याप्त अवस्थामें १०१ का बन्ध कहा गया है । उसमें से उक्त दो प्रकृतियाँ यहाँ घट जाती हैं ।
आनतादि स्वर्गों तथा नव ग्रैवेयकों में पर्याप्त अवस्थामें ६७ का बन्ध होता था उसमें से मनुष्यायुको घटाने से ९६ का बन्ध निर्वृत्यपर्याप्तक अवस्था में कहा गया है ।
नव अनुदिश तथा पंच अनुत्तर विमानोंमें पूर्वोक्त ७२ प्रकृतियोंमें से मनुष्यायुको बन्धके अयोग्य होनेसे घटानेपर निर्वृत्यपर्याप्तक अवस्थामें ७१ का बन्ध कहा गया है ।
सौधर्मादि नव ग्रैवेयक पर्यन्त निर्वृत्यपर्याप्तक अवस्थामें मिध्यात्व, सासादन तथा असंयतमै तीन गुणस्थान होते हैं। आगे 'सम्यक्त्वी जीवका ही उत्पाद होनेसे चौथा गुणस्थान कहा है।
नरकगति - यहाँ मिथ्यात्व गुणस्थान में बन्धव्युच्छित्तिवाली सोलह प्रकृतियों में से मिध्यात्व, हुण्डक संस्थान, नपुंसक वेद तथा असम्प्राप्तासृपाटिकासंहननको छोड़कर शेष बारह प्रकृतियोंको बन्धके अयोग्य कहा है। इन बारह प्रकृतियोंके सिवाय देवगति, देवगत्यानुपूर्वी, वैक्रियिक शरीर, वैक्रियिक अंगोपांग, देवायु तथा आहारकद्विक इन सात प्रकृतियोंका भी बन्ध नहीं होनेसे १२+७ = १६ प्रकृतियोंको १२० में घटानेसे १०१ का बन्ध कहा गया है । यहाँ प्रथमसे चतुर्थ गुणस्थान पर्यन्त चार गुणस्थान कहे गये हैं ।
चौथे, पाँचवें, छठे तथा सातवें नरकों में तीर्थंकर प्रकृतिका बन्ध नहीं होता है । चौथी, पाँचवीं तथा छठी पृथ्वीमें १०१ - १ = १०० प्रकृति बन्ध योग्य कही हैं। सातवीं पृथ्वी में मनुष्यायुका बन्ध नहीं होता है । वहाँ से निकलकर जीव पशु पर्यायकोही प्राप्त करता है, अतः सातवीं पृथ्वी में १०० - १ = ९९ प्रकृतियोंको बन्ध योग्य कहा है ।
पहली पृथ्वी में निर्वृत्यपर्याप्तक अवस्था में मनुष्यायु तथा तियंचायुका अभाव होने से १०१ -२=६६ को बन्ध योग्य कहा है । यहाँ मिथ्यात्वादि चार गुणस्थान होते हैं ।
दूसरे नरकसे छठे नरक पर्यन्त अपर्याप्तावस्था में केवल मिथ्यात्व गुणस्थान होता है । वहाँ तीर्थंकर, मनुष्यायु तथा तिर्यंचायु इन तीन प्रकृतियोंका बंन्ध न होनेसे १०१ - ३ =६८ को बन्ध योग्य कहा है ।
सातवें नरकमें अपर्याप्त अवस्थामें मिथ्यात्व गुणस्थान होता है । वहाँ अपर्याप्त अवस्था में मनुष्यगति, मनुष्यगत्यानुपूर्वी तथा उच्च गोत्रका बन्ध न होनेसे ६८- ३=६५ प्रकृतियोंको बन्ध योग्य कहा है ।
तिर्यंचगति – तिर्यंचों के सामान्य तिर्यंच, पञ्चेन्द्रिय तिर्यंच, पर्याप्ततिर्यंच तथा योनिमत् तिर्यंच इस प्रकार जो चार भेद कहे गये हैं, उनके पाँच गुणस्थान होते हैं । तिर्यंचों में तीर्थंकर तथा आहारकद्विक इन प्रकृतियोंके बन्धका अभाव रहने से १२० - ३ = ११७ का बन्ध होता है । मनुष्यगति के समान तिर्यों में भी वज्रवृषभनाराचसंहनन, औदारिकद्विक, मनुष्यगति, मनुष्यगत्यानुपूर्वी तथा मनुष्यायुकी बन्धव्युच्छित्ति अविरत के बदले में सासादन गुणस्थान में होती है।
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