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महाबंधे
निर्वृत्यपर्याप्तक तिर्यश्वोंमें चार आयु तथा नरकद्विकका बन्धाभाव होनेसे बन्धयोग्य ११७-६=१११ प्रकृतियाँ हैं । इनके मिथ्यात्व, सासादन तथा असंयत ये तीन गुणस्थान होते हैं ।
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लब्ध्यपर्याप्तक तिर्यों में नरकायु, देवायु तथा वैक्रियिक षटकका बन्ध न होनेसे ११७-८=१०९ का बन्ध होता है । यहाँ मिथ्यात्व गुणस्थानका सद्भाव कहा गया है।
इन्द्रिय मार्गणा - पर्याप्तक एकेन्द्रिय तथा विकलेन्द्रियोंमें तीर्थंकर आहारकद्विक, देवायु, नरकायु तथा वैक्रियिकषटक इन एकादश प्रकृतियोंका बन्ध न होनेसे १२० - ११ =१०९ प्रकृतियोंका बन्ध कहा गया है । इनके प्रथम और द्वितीयगुणस्थान होते हैं ।
पचेन्द्रिय पर्याप्तकों में चौदह गुणस्थान कहे गये हैं ।
पन्द्रिय निर्वृत्यपर्याप्तकों में आहारकद्विक, नरकद्विक तथा आयुचतुष्टय इस प्रकार आठ प्रकृतियोंका बन्ध नहीं होनेसे १२० - ८ = ११२ का बन्ध कहा है । इनके १, २, ४, ६ तथा तेरहवें गुणस्थान कहे हैं। आहारकमिश्रकाययोगावस्थामें जीव निर्वृत्यपर्याप्तक होता है । उस समय प्रमत्तसंयतावस्था पायी जाती है । केवली भगवान् के समुद्घातकाल में औदारिक मिश्रकाय के समय निर्वृत्यपर्याप्तक अवस्था पायी जाती है ।
लब्ध्यपर्याप्तक पञ्चेन्द्रियों में तीर्थंकर, आहारकद्विक, देवायु, नरकायु, वैक्रियिकषटक इन ११ प्रकृतियोंको छोड़कर १२० - ११ = १०९ का बन्ध बताया गया है । गुणस्थान प्रथम ही होता है ।
कायमार्गणा - पृथ्वी काय, जलकाय, वनस्पतिकायवाले जीवोंमें मिध्यात्व, सासादन गुणस्थान होते हैं । इनकी १०९ प्रकृतियोंका बन्ध होता है ।
अग्निकायिकों, वायुकायिकों में मनुष्यद्विक, उच्चगोत्र तथा मनुष्यायुका बन्ध न होने से १०९-४= १०५ का बन्ध है । गुणस्थान मिथ्यात्व हो होता है । गोम्मटसार कर्मकाण्ड में लिखा है - "ण हि सासणो, श्रपुष्णे- साहारणसुभगे य ते उदुगे । " ॥ ११५ ॥
लब्ध्यपर्याप्तकों, साधारण वनस्पतिकायिकों, सम्पूर्ण सूक्ष्मस्थावर जीवों में तथा तेजकायिक वायुकायिकों में सासादन गुणस्थान नहीं होता है। नारकी जीवों में भी अपर्याप्तावस्था में सासादनका अभाव है ।
योगमार्गणा - असत्य मन तथा असत्यवचनयोग, उभय मन तथा वचन योगों में मिध्यात्वसे आदि क्षीण कषाय पर्यन्त द्वादश गुणस्थान पाये जाते हैं ।
सत्य मन, सत्य वचन तथा अनुभय मन तथा अनुभय वचनमें सयोगी जिन पर्यन्त त्रयोदश गुणस्थान कहे गये हैं ।
औदारिक काययोगमें त्रयोदश गुणस्थान कहे गये हैं । मनुष्यगतिके समान वर्णन जानना चाहिए । औदारिकमिश्र काययोगमें आहारक द्विक, नरकद्विक, नरकायु और देवायु इन छह प्रकृतियों के बिना १२० - ६ = ११४ का बन्ध होता है । यहाँ मिथ्यात्व, सासादन, असंयत तथा सयोगी जिन ये गुणस्थान पाये जाते हैं ।
वैक्रियिक काययोगमें सौधर्म - ईशान स्वर्ग के समान १०४ प्रकृतियोंका बन्ध होता है । वैक्रियिक मिश्र काययोग में मनुष्यायु तथा तिर्यंचायुका बन्ध न होनेसे १०४ - २ = १०२ प्रकृ तियोंका बन्ध होता है । यहाँ मिध्यात्व, सासादन तथा असंयत गुणस्थान होते हैं ।
आहारक काययोगमें छठा गुणस्थान होता है । यहाँ ६३ प्रकृतियों का बन्ध होता है । आहारक मिश्रयोग में देवायुका बन्ध नहीं होनेसे ६३ - १ = ६२ का बन्ध होता है ।
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