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________________ पयडिबंधाहियारो ५३ . कार्मण काययोगमें प्रथम, द्वितीय, चतुर्थ तथा त्रयोदशम गुणस्थान पाये जाते हैं। यहाँ औदारिकमिश्रकाययोग सम्बन्धी ११४ प्रकृतियोंमें-से मनुष्यायु तथा तियंचायुको घटानेपर ११२ का बन्ध होता है । वेदमार्गणा - तीनों वेदोंमें प्रथमसे नवम गुणस्थान पर्यन्त गुणस्थान होते हैं । यहाँ तीनों वेदोंमें १२० प्रकृतियाँ बन्ध योग्य कही गयी हैं। स्त्रीवेदीके निवृत्यपर्याप्तक अवस्थामें प्रथम तथा द्वितीय गुणस्थान कहे गये हैं । यहाँ चार आयु, तीर्थंकर, आहारकद्विक, वैक्रियिकषट्क इन १३ प्रकृतियोंको छोड़कर १२० - १३ = १०७ का बन्ध होता है। नपुंसकवेदी निर्वृत्यपर्याप्तक अवस्थामें मिथ्यात्व, सासादन तथा असंयतगुणस्थान कहे गये हैं । यहाँ चार आयु, आहारकद्विक, वैक्रियिकषट्क इन द्वादश प्रकृतियोंके विना १०८ का बन्ध होता है । तीथकर प्रकृतिका बन्धक जब नरकमें जाता है, तब उसके अपर्याप्तक दशामें तीर्थकरका बन्ध होनेसे यहाँ १०८ का बन्ध कहा है। ऐसा स्त्रीवेदीमें नहीं होता है। सम्यक्त्वी जीव प्रथम नरक तो जाता है और वहाँ नपुंसकवेदी होता है किन्तु वह स्त्रीवेदी नहीं होता है। पुरुषवेदीके १२० प्रकृतियोंका बन्ध होता है। निवृत्यपर्याप्तक अवस्था में उसके आहारकद्विक, नरकद्विक, तथा चार आयुको छोड़कर १२०-८११२ का बन्ध होता है । कषायमार्गणा-यहाँ १ से १० पर्यन्त गुणस्थान कहे गये है । यहाँ बन्ध १२० प्रकृतियों का होता है। शानमार्गणा-कुमति, कुश्रुत तथा कुअवधि ज्ञानोंमें तीर्थकर तथा आहारकद्विकको छोड़कर १२० - ३ - ११७ का बन्ध होता है। यहाँ मिथ्यात्व तथा सासादन गुणस्थान कहे गये हैं । सुमति, सुश्रुत तथा सुअवधिज्ञानोंमें चौथेसे बारहवें पर्यन्त गुणस्थान होते हैं । यहाँ बन्धयोग्य ७९ प्रकृतियाँ कही गयी हैं। ____ मनःपर्यय ज्ञानमें प्रमत्तसंयतसे क्षीणकषायपर्यन्त गुणस्थान हैं। यहाँ ६५ प्रकृतियाँ कही गयी हैं। मनःपर्यय ज्ञानमें प्रमत्तसंयतसे क्षीणकषाय पर्यन्त गुणस्थान हैं । यहाँ ६५ प्रकृतियोंका बन्ध होता है। यहाँ आहारकद्विकका भी बन्ध होता है । ' मनःपर्ययज्ञानोके आहारकद्विकके उदयका विरोध है। केवलज्ञानमें सयोगकेवली, अयोगकेवली गुणस्थान पाये जाते हैं । सयोगकेवलीके केवल सातावेदनीयका बन्ध होता है । अयोगी जिनके बन्धका अभाव है। ___संयममार्गणा-असंयम मार्गणामें आदिके चार गुणस्थान हैं। यहाँ संयम अवस्थामें बँधनेवाली आहारकद्विकका बन्ध न होनेसे बन्ध योग्य १२० - २ -- ११८ प्रकृतियाँ कही गयी हैं। देशसंयमीके पाँचवाँ गुणस्थान होता है। सामायिक तथा छेदोपस्थापना सयममें ६.७, ८, ९ पर्यन्त चार गुणस्थान होते हैं । यहाँ ६५ प्रकृति बन्ध योग्य है। परिहार विशुद्धि संयममें छठवें, सातवें गुणस्थान होते हैं। यहाँ भी ६५ प्रकृतिका बन्ध होता है । इस संयमीके आहारकद्विकका बन्ध तो होता है; किन्तु उनका उदय नहीं होता है। यथाख्यात संयम- यह ११वें से १४वें पर्यन्त होता है । उपशान्त कपायसे सयोगी जिन पर्यन्त केवल सातावेदनीय का बन्ध होता है । चौदहवें गुणस्थानमें बन्धाभाव है,क्योंकि वहाँ योगका अभाव हो जाता है। दर्शनमार्गणा - चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शनमें १ से १२ पर्यन्त गुणस्थान होते हैं । यहाँ १२० प्रकृतिका बन्ध होता है। १. अत्र आहारकद्वयोदय एव विरुध्द्यते, नाप्रमत्तापूर्वकरयोस्तबन्धः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001388
Book TitleMahabandho Part 1
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages520
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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