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महाबंधे
अवधिदर्शनमें ४थे से १२वें पर्यन्त गुणस्थान कहे गये हैं। यहाँ अवधिज्ञानवत् ७६ का बन्ध जानना चाहिए।
__ केवलदर्शन १३ तथा १४ ये दो गुणस्थान होते हैं। बन्धको अपेक्षा सयोगी जिनके सातावेदनीयका ही बन्ध होता है ।
लेश्यामार्गणा - कृष्ण, नील, तथा कापोत इट तीन लेश्याओंमें आदिके चार गुणस्थान होते हैं । अतः यहाँ आहारकद्विकके बिना १२० - २ - ११८ प्रकृतियोंका बन्ध कहा है।
पीत लेश्यामें १ से लेकर ७वें पर्यन्त गुणस्थान हैं। यहाँ सूक्ष्म,अपर्याप्त,साधारण, विकलत्रय, नरकायु तथा नरकद्विक इन ९ प्रकृतियोंका बन्ध न होनेसे बन्ध योग्य १२० - ९% १११ कही गयी हैं।
पद्म लेश्यामें पूर्ववत् ७ गुणस्थान होते हैं। यहाँ एकेन्द्रिय, स्थावर तथा आतापका बन्ध न होनेसे १११ - ३ = १०८ बन्ध योग्य कही हैं।
शुक्ललेश्या - यहाँ सयोगी जिन पर्यन्त त्रयोदश गुणस्थान होते हैं । यहाँ पालेश्या. सम्बन्धी १०८ प्रकृतियों में से तियचगति, तियचगत्यानुपूर्वी, तिथंचायु तथा उद्योत इन शतारचतुष्कका अभाव होनेसे १८८ - ४ = १०४ का बन्ध होता है।
भव्यमार्गणा - भव्योंके चौदह गुणस्थान होते हैं। इनके १२० प्रकृतियोंका बन्ध होता है।
अभव्य जीवोंके तीर्थंकर तथा आहारकद्विकको छोड़ ११७ का बन्ध होता है । इनके मिथ्यात्व गुणस्थान ही होता है।
सम्यक्त्वमागणा- प्रथमोपशम सम्यक्त्वमें मिथ्यात्व गुणस्थानसम्बन्धी १६ तथा सासादन गुणस्थान सम्बन्धी २५ प्रकृतियोंका अभाव होने के साथ देवायु तथा मनुष्यायुका अभाव होता है, अतः १६+२५+२= ४३ प्रकृतियोंको घटानेसे यहाँ १२०-४३ = ७७ प्रकृतियोंका बन्ध होता है। यहाँ चौथेसे सातवें पर्यन्त चार गुणस्थान कहे गये हैं। द्वितीयोपशम सम्यक्त्वमें चौथेसे ग्यारहवें पर्यन्त सात गुणस्थान कहे गये हैं। सातवें गुणस्थानसे ग्यारहवें पर्यन्त चढ़कर जब वह जीव नीचे उतरकर चौथे गुणस्थानमें आता है, तब उसके प्रथमोपशम सम्यक्त्वके समान ७७ प्रकृतियोंका बन्ध होता है। यहाँ भी मनुष्यायु तथा देवायुका अभाव कहा है । "सव्वुवसम्मे परसुरआऊणि णस्थि णियमेण" (गो० कं० १२०)
'गोम्मटसार 'कर्मकाण्डकी संस्कृत टोकामें लिखा है = अत्र प्रथमद्वितीयोपशमसम्यक्त्वयोरायुरबन्धात् आरोहकापूर्वकरणप्रथमसमये 'मरणोन' इति विशेषोऽनर्थकः ? इति न वाच्यम्, प्रारबद्धदेवायुष्कस्यापि सातिशयप्रमत्तस्य श्रेण्यारोहणसंभवात् (११६ पृष्ठ) यहाँ यह प्रश्न किया है, प्रथमोपशम तथा द्वितीयोपशम सम्यक्त्वोंमें आयुबन्धका अभाव कहा है, तब श्रेणीका आरोहण करनेवाले अपूर्वकरण गुणस्थानके प्रथम समयमें 'मरणोन' मरणरहित ऐसा विशेषण निरर्थक रहा ? इसका समाधान यह है कि पहले देवायुका बन्ध करनेवाले सातिशय अप्रमत्तके श्रेणीका आरोहण सम्भव है । पूर्व में आयुबन्ध करनेके अन्तमुहूत पर्यन्त सम्यक्त्वमें मरण नहीं होता है । इस प्रकार प्रथमोपशम सम्यक्त्वमें तथा श्रेणी चढ़ते अपूर्वकरणके प्रथम भागके अन्तर्मुहूर्त में मरण नहीं होता है; अन्यत्र उपशम श्रेणीमें मरण होता है । ( गो० क०,संस्कृत टी०, पृ० १२२)
क्षयोपशम अथवा वेदक सम्यक्त्व चौथेसे सातवें पर्यन्त कहा है। वहाँ प्रथमोपशम सम्यक्त्वका ७७ प्रकृतियोंमें मनुष्यायु तथा देवायुको जोड़नेसे ७९ का बन्ध कहा गया है।
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