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________________ ८ महा संधारिय-सीलहरा उत्तारिय-चिरपमाद-दुस्सीलभरा । साहू जयंतु सव्वे सिवसुह-पह - संठिया हु णिग्गलियभया ॥ ६ ॥ अर्थ- जिन्होंने शीलरूप हारको धारण किया है, चिरकालीन प्रमाद तथा कुशील के भारको दूर कर दिया है, जो शिव-सुखके मार्ग में स्थित हैं तथा निर्भीक हैं, वे सर्व साधु जयवन्त हों । भावार्थ - हारके धारण करनेसे कण्ठ शोभनीक मालूम पड़ता है, इसीलिए साधुओंने शीलरूप हारसे अपने कण्ठको भूषित किया है। कण्ठमें स्थित हार प्रत्येक के देखने में आता है, साधुओंकी दिगम्बर वृत्ति होनेके कारण उनके शीलरूपी हारको प्रत्येक व्यक्ति देख सकता है । प्रायः संसारी जन प्रमाद् तथा कुशील (अनात्मभाव ) में निमग्न रहा करते हैं किन्तु मुनिराज प्रमादोंका परित्याग करते हैं तथा ब्रह्मचर्यमें निमग्न रहने के कारण कुशील रूप विकारी भावसे दूर रहते हैं । निरन्तर कर्मशत्रुओं का संहार करने में संलग्न रहनेके कारण उनके पास प्रमादका अवसर ही नहीं आता है । आत्मकल्याण में वे सदा सावधान रहते हैं । महर्षि पूज्यपाद के शब्दों में वे मुनिराज बोलते हुए भी मौनीके समान रहते हैं, गमन करते हुए भी नहीं गमन करते हुए सरीखे हैं, देखते हुए भी नहीं देखते हुए सदृश हैं, कारण उन्होंने आत्मतत्त्वमें स्थिरता प्राप्त की है । सम्पूर्ण परिग्रहका परित्याग करके तथा सकल संयमको अंगीकार करने I कारण वे निराकुलतापूर्ण यथार्थ निर्वाण सुखके मार्ग में प्रवृत्त हैं । उन्हें जीवनकी न ममता है, न मृत्युका भय है । तिलतुषमात्र भी परिग्रह न रहनेसे किसी प्रकारकी भीति नहीं है । वे आत्माको अजर-अमर तथा अविनाशी आनन्दका भण्डार समझ भयमुक्त रहते हैं । ऐसी उज्ज्वल आत्माओंके प्रसादसे अनुवादक निर्विघ्न रूपसे ग्रन्थसमाप्ति के लिए मंगलकामना करता है। [ मूलग्रन्थका मंगल ] महाकर्म- प्रकृति-प्राभृतके प्रारम्भ में गौतम गणधर - द्वारा विरचित मंगलको वहाँ से उद्धृत कर भूतबलि आचार्य इस शास्त्रका मंगल मान ग्रन्थारम्भ करते हैं । द्रव्यार्थिक नाश्रित भव्य जीवों के अनुग्रहार्थ गौतम स्वामी सूत्रका प्रणयन करते हुए कहते हैं. - मोजणं ॥ १ ॥ अर्थ - जिन भगवान्‌को नमस्कार हो । विशेषार्थ 'जिन' शब्द से तात्पर्य उन श्रेष्ठ आत्माओंसे है, जिन्होंने सम्पूर्ण आत्मप्रदेशोंमें निबिड रूपसे निबद्ध घातिया कर्मरूप मेघपटलको दूर करके अनन्तज्ञान, अनन्त Jain Education International १. " धीरधरियसीलमाला वत्रगयराया जसो हत्या । बहु-विषय-भूसियंगा सुहाई साहू पयच्छंतु ॥" - ति० प० गा० ५ । २. " ब्रुवन्नपि हि न ब्रूते गच्छन्नपि न गच्छति । स्थिरीकृतात्मतत्त्वस्तु पश्यन्नपिन पश्यति ॥ " - इष्टोप० इलो० ४१ । ३. "एवं दञ्चट्ठिय-जणागुग्गहण णमोक्कारं गोदमभडारओ महाकम्मपाहुडस आदिहिं काऊण " ध० टी० । ४. “ॐ ह्रीं अहं णमो अरिहंताणं, णमो जिणाणं । ..... - भ० क० ० १ | "ॐ ह्रीं जिणाणं भ० क० ० २। For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001388
Book TitleMahabandho Part 1
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages520
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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