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मंगलायरणं
अर्थ-दुःखरूप तीव्र प्याससे पीड़ित तीनलोकके भव्योंके प्रति प्रशस्त रागवश जिन्होंने श्रुतज्ञानरूपी जल पिलानेके लिए धर्मरूप प्रपा-प्याऊ स्थापित की है, वे 'उपाध्याय सदा प्रसन्न होवें।
भावार्थ-इस जगत्के प्राणियोंको विषयोंकी लालसासे जनित सन्ताप सदा दुःखी करता है । महान पुण्यशाली देवेन्द्र, चक्रवर्ती आदि भी विषयतृष्णाके तापसे नहीं बच सके हैं। उनकी तृष्णाग्नि तो और अधिक प्रज्वलित रहती है । इस तृष्णाकी शान्ति के लिए यह जीव विषयोंका सेवन करता है, किन्त इससे वेदना तनिक भी न्यन न होकर उत्तरोत्तर वृद्धिंगत हआ करती है। जिस प्रकार पिपासाकुल व्यक्तियोंकी तृषानिवृत्ति-निमित्त उदार पुरुष प्याऊकी व्यवस्था करते हैं, जिससे सबको मधुर शीतल जलकी प्राप्ति हो, उसी प्रकार उपाध्याय परमेष्ठीने परम करुणाभावसे विषयोंकी तृष्णासे सन्तप्त भव्योंके कल्याणार्थ श्रुतज्ञानरूप प्रपा स्थापित की है । उनके द्वारा शास्त्रका उपदेश होते रहनेसे तथा आगमका शिक्षण होनेसे भव्यात्माओंकी विषयतृष्णा कम होती जाती है ओर वे आत्मोन्मुख बनकर विषयोंकी आशा ही नहीं करती हैं। श्रुतज्ञान प्रपाके जलका पान करनेसे भोगोंकी अभिलाषारूप तृषा दूर होती है तथा आत्मा, स्वरूपकी उपलब्धि कर, महान् शान्तिका लाभ करती है। द्वादशांगरूप महाशास्त्रसिन्धुमें अवगाहन कर अपनी पिपासाकी शान्ति साधारण आत्माएँ नहीं कर पाती हैं,अतः उनके हितार्थ प्रपा बनायी गयी, जहाँ अपनी मन्दमतिरूपी चुल्लू में श्रुतरूपी पानी भरकर आत्मा पिपासाकी शान्ति करती है। जितना-जितना यह जीव श्रुतज्ञानके रसका पान करता है और अपनी आत्माको तृप्त करता है, उतना-उतना वह सन्तापमुक्त हो शान्ति लाभ करता है।
१.झांका-राग परिणाम मोहनीय कर्मका भेद है। मोहनीय कर्म घातिया कममि प्रमख है। घातिया कर्म जब पाप प्रकृतियों में अन्तर्भत हैं, तब रागभाव भी पापप्रकृति रूप स्वयं सिद्ध होता है। अतएव पापप्रकृति रूप राग परिणामको 'सुटु' ( शुभ ) रूप कहना कैसे उचित होगा ?
समाधान-इस विषयमें सन्देह निवारण हेतु महर्षि कुन्दकुन्द स्वामोके प्रवचनसारसे प्रकाश प्राप्त होता है। वहाँ ज्ञेयाधिकारमें रागभावके शुभ तथा अगुभ रूप भेद कहे गये हैं-"सुहो व असुहो हवाद रागो । ( १८० ) उक्त ग्रन्थके चारित्र अधिकारमें लिखा है-"रागो पसत्थभूदो" ( २५५ ) राग प्रशस्त रूप होता है। अतः राग परिणाम प्रशस्त रूप भी होता है, यह कथन आगमके प्रतिकुल नहीं है। रागको शुभ या प्रशस्त कहने का कारण यह है कि उसके द्वारा पुण्य कर्मका बन्ध होता है। जिस रागात्मक चित्तवृत्तिके द्वारा पुण्य कर्मका बन्ध होता है उस पुण्यबन्धके उत्पादक राग भावको आगममें शुभ रोग यां प्रशस्त राग माना गया है। शुभ भाव पुण्यबन्धका कारण कहा गया है । कुन्दकुन्द स्वामीने लिखा है
सुहपरिणामो पुण्णं असुहो पावत्ति भणियमण्णेसु । परिणामो णण्णगदो दुक्खक्खयकारणं समये ।। १८१ ।।
--प्रवचनसार
शुभ परिणाम रूप रागभावसे पुण्यका बन्ध होता है और अगुभ भावसे पापका बन्ध होता है । अन्यमें रमण न करनेवाला मुद्धभाव आगममें ममस्त दुःखोंके क्षयका कारण कहा गया है ।
इम कारण शुभ रागभावमे प्रेरित होकर उपाध्याय परमेष्टी दुःखी जीवोंका मनाप दूर करते हैं ।
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