SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 131
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ६ महाबंधे अर्थ- जिन्होंने रत्नत्रयरूपी खड्ड के प्रहारसे मोहरूपी सेनाके शिर-समूहका नाश कर दिया है तथा भव्य जीव-लोकका परिपालन किया है वे आचार्य महाराज प्रसन्न होवें । भावार्थ - यहाँ आचार्य महाराजकी राजासे तुलना की गयी है। जैसे कोई प्रतापी राजा अपनी प्रचण्ड तलवारके प्रहार से शत्रुसैन्यका नाश करता है, उसी प्रकार आचार्य परमेष्ठी सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान तथा सम्यक् चारित्र रूपी अजेय बन से मोहरूपी सेनाके मस्तकों का नाश करते हैं । जिस प्रकार राजा अत्याचारीका अन्त करके धर्मपरायण प्रजाका रक्षण करता है, उसी प्रकार आचार्य महाराज मोहका ध्वंस करके भव्यात्माओंका रक्षण करते हैं। मोहके कारण संसार में भव्य जीव बहुत कष्ट पा रहे थे । आचार्य महाराजने रत्नत्रय से अपनी आत्माको सुसज्जित करके अपनी पुण्य अभय वाणी तथा जीवनदात्री लेखनीके द्वारा जो वीतरागताकी धारा बहायी, उससे भव्यात्माओंके अन्तःकरण में जो मोहका आतंक था, वह दूर हुआ और उन्होंने अपने निज रूपकी उपलब्धि की । भव्यात्माओं को जब भी मोहका आतंक व्यथा पहुँचाता है, तब ही वे आचार्य परमेष्ठी के चरणोंका आश्रय ले अभय अवस्थाको प्राप्त होते हैं । अण्णाणयंधयारे अणोरपारे भमंत-भवियाणं । उज्जोवो जेहि कओ पसियंतु सया उवज्झाया ॥ ४ ॥ अर्थ - जिसके ओर-छोरका पता नहीं है, ऐसे अज्ञान-अन्धकार में भटकनेवाले भव्यजीवोंको जिन्होंने प्रकाश प्रदान किया है वे उपाध्याय प्रसन्न होवें । भावार्थ - यहाँ अज्ञानको अन्धकारकी उपमा दी गयी है। जिस प्रकार चक्षुष्मान् व्यक्ति प्रकाशरहित स्थल में अन्धेकी भाँति आचरण करता है, उसी प्रकार सम्यकज्ञानज्योतिके अभाव में यह जीव परद्रयको स्व मानकर तथा आत्मतत्त्वको अनात्म पदार्थ मानकर अन्धे के समान प्रवृत्ति करता है । इस मिथ्याज्ञानरूप अन्धकारके आदि-अन्तका पता नहीं चलता है । वह अपार है । उसमें भव्य जीव भटक रहे हैं और परको अपना मानकर दुःखी हो रहे हैं । यह मिथ्याज्ञानका ही प्रभाव है कि जीव कल्याणके मार्गको न पाकर चौरासी लाख योनियोंमें परिभ्रमण करता फिरता है। जैसे अन्धकार में भटकनेवाले जीवोंको प्रकाशका दर्शन होते ही हित-सार्ग सूझने लगता है, उसी प्रकार उपाध्याय परमेष्ठीके प्रसादसे सम्यकज्ञानका प्रकाश प्राप्त होता है, जिससे यह मोहान्ध प्राणी पंच परावर्तनरूप संसारका परिभ्रमण छोड़कर शाश्वतिक शान्तिमय शिवपुर की ओर उन्मुख हो जाता है । उपाध्याय के समीप सविनय आकर भव्यात्माएँ आगमका अभ्यास करती हैं, और सम्यक ज्ञानका लाभ करती हैं, इस कारण अज्ञान अन्धकार निवारण करनेवाले उपाध्याय परमेष्ठी से प्रसन्नता की प्रार्थना की गयी है । Jain Education International दुह-तिब्व-तिसा-विदिय- तिहुवण- भवियाण सुङ्कुराएण । परिठविया धम्म- पवा सुअ-जल-वाणप्पयाणेण ॥ ५ ॥ १. 'अण्णाणघोर तिमिरे दुरंततीरम्हि हिंडमाणाणं । भवियाणुज्जोयपरा उवसाया वरमदि देतु ॥" -ति० प० गा० ४ । २. "विनयेनोपेत्य यस्माद् व्रतशीलभावनाधिष्ठानादागमं श्रुतारूयमधीयते स उपाध्यायः । " - त० रा० पृ० ३४६ ॥ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001388
Book TitleMahabandho Part 1
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages520
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy