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________________ मंगलायरणं होते हैं। वे राग-द्वेषको दुविधाके चक्करसे परे पहुँच चुके हैं। ऐसी व्यवस्था होते हुए मंगलगाथामें सिद्ध परमात्मासे प्रसन्नताकी प्रार्थनाका क्या रहस्य है ? यह विशेष विचारणीय है। यदि भगवान् यथार्थमें प्रसन्न हो गये, तो उनकी वीतरागता कहाँ रही और यदि वे प्रसन्न न हुए, तो प्रसन्नताकी प्रार्थना अप्रयोजनीक ठहरती है। यथार्थ बात यह है कि प्रसन्न-निर्मलभावपूर्वक प्रभुकी आराधना करनेवाला भक्त उपचारसे प्रभु में प्रसन्नताका आरोप करता है।। आचार्य विद्यानन्दी आप्तपरीक्षामें लिखते हैं-वीतरागमें क्रोधके समान सन्तोषलक्षण प्रसादकी भी सम्भावना नहीं है। अतः प्रसन्न अन्तःकरण-द्वारा प्रभुकी आराधना करना वीतरागकी प्रसन्नता मानी जाती है । इसी अपेक्षासे भगवानको प्रसन्न कहते हैं जैसे प्रसन्न अन्तःकरणपूर्वक रसायनका सेवन करके नीरोग व्यक्ति कहता है कि रसायनके प्रसादसे मैं नीरोग हुआ हूँ, उसी प्रकार प्रसन्न चित्तवृत्तिपूर्वक वीतराग प्रभुकी आराधनासे इष्टसिद्धि प्राप्त कर भक्त उपचारसे कहता है कि परमात्माके प्रसादसे मेरा मनोरथ पूर्ण हुआ है। इसी दृष्टिसे वीतराग सिद्ध परमात्मासे प्रसन्नताकी प्रार्थना की गयी है। तिहुवण-भवणप्पसरिय-पच्चक्खववोह-किरण-परिवेदो। उइओ वि अणत्थवणो अरहंत-दिवायरो जयऊ ।। २ ।। अर्थ-वे अरहन्त भगवानरूपी सूर्य जयवन्त हों, जो तीन लोकरूपी भवन में फैली हुई ज्ञानकिरणोंसे व्याप्त हैं, तथा जो उदित होते हुए भी अस्तको प्राप्त नहीं होते हैं। . भावार्थ-यहाँ अरहन्त भगवानको सूर्यके साथ तुलना की है । सूर्य स्वपरप्रकाशक है । अरहन्त भगवान्का केवलज्ञान भी स्वपरप्रकाशक है। लोकप्रसिद्ध सूर्यकी अपेक्षा अरहन्तसूर्यमें विशेषता है। लौकिक सूर्य जब कि मध्यलोकके थोड़े-से प्रदेशको आलोकित करता है, तब अरहन्त सूर्य सकल विश्वको प्रकाशित करता है । सूर्यका उदय और अस्त होता है, किन्तु केवलज्ञान सूर्य का उदय तो होता है, पर अस्त नहीं। जब कैवल्यका प्रकाश आत्मामें उत्पन्न हो चुका, तब उस सर्वज्ञ आत्माकी ज्ञानज्योतिको कर्मपटल पुनः कैसे ढाँक सकेंगे ? अतः केवलज्ञानसूर्य उदययुक्त होते हुए भी अस्तरहित है। वह अनन्त काल पर्यन्त प्रकाशित रहता है । अरहन्तसूर्यको किरणें ज्ञानात्मक हैं, लौकिक सूर्यकी किरणें पौद्गलिक हैं। ति-रयण-खग्ग-णिहाएणुत्तारिय-मोह-सेण्ण-सिर-णिवहो । आइरिय-राउ पसियउ परिवालिय-भविय-जिय-लोओ ॥ ३ ॥ ____१. "प्रसाद: पुन: परमेष्ठिनस्त दिनयानां प्रसन्न मनोविषयत्वमेव, वीतरागाणां तुष्टिलक्षणप्रसादा. संभवात् कोपासंभववत् । तदाराधकजनैस्तु प्रसन्नेन मनसोपास्यमानो भगवान् प्रसन्न इत्यभिधीयते रसायनवत् । यथैव हि प्रसन्नेन मनसा रसायनमासे व्य तत्फलमाप्नुवन्तः सन्तो रसायनप्रसादादिदमस्माकमारोग्यादिफलं समुत्पन्नमिति प्रतिपद्यन्ते तथा प्रसन्नेन मनसा भगवन्तं परमेष्टिनमुपास्य तदुपासनफलं श्रेयोमार्गाधिगमलक्षणं प्रतिपद्य मानास्तद्विनयजना: भगवत्परमेष्ठिन: प्रसादादस्माकं श्रेयोमार्गाधिगमः सम्पन्न इति समनुमन्यन्ते ।" आप्तप० पृ०२,३ । २. "नास्तं कदाचिदुपयासि न राहगम्यः स्पष्टीकरोषि सहसा युगपज्जगन्ति ।। नाम्भो धरोदरनिरुद्धमहाप्रभावः सूर्यातिशायिमहिमासि मुनीन्द्रलोके ॥"-भक्तामर० श्लो०१७॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001388
Book TitleMahabandho Part 1
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages520
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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