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महाबंधे
रूपरहित एक राजू है । वेत्रासनके सदृश वह पृथ्वी उत्तर-दक्षिण भागमें कुछ कम सात राजू लम्बी तथा आठ योजन बाहुल्यवाली है। यह पृथ्वी घनोदधि, घनवात और तनुवात इन तोन वायुओंसे युक्त है। इनमें प्रत्येक वायुका बाहुल्य बीस हजार योजन प्रमाण है (८-६५४, ति० प०)।"
इसके बहुमध्य भागमें चाँदी तथा सुवर्णके समान नाना रत्नोंसे परिपूर्ण ईषत् प्राग्भार नामका क्षेत्र है। यह क्षेत्र ऊर्ध्वमुखयुक्त धवल छत्रके समान सुन्दर और पैंतालीस लाख योजन प्रमाण विस्तारसहित है। उसका मध्य बाहुल्य अष्ट योजन और अन्त में एक अंगुलमात्र है। अष्टम भूमिमें स्थित सिद्ध क्षेत्रको परिधि मनुष्य क्षेत्रकी परिधिके समान है। (गाथा ६५२ से ६५८ पृ० ६४ ति०५०) त्रिलोकसारमें अष्टम पृथ्वीको ईषत्प्राम्भारा कहा है
त्रिभुवन-मर्धारूढा ईषत्प्राग्भारा धराष्टमी रुन्द्रा ।
दीर्घा एक-सप्तरज्जू अष्टयोजन-प्रमितबाहुल्या ॥ ५५६ ।। त्रिलोकसारके शिम्बरपर स्थित ईषत्प्राग्भारा नामकी आठवीं पृथ्वी है। वह एक राजू पौड़ी, सात राजू लम्बी तथा आठ योजन प्रमाण बाहुल्य युक्त है।
उस पृथ्वीके मध्य में जो सिद्धक्षेत्र छत्राकार कहा है, उसका वर्ण त्रिलोकसारमें चाँदीका बताया है।
तन्मध्ये रूप्यमयं छत्राकारं मनुष्यमही-व्यासम् ।
सिद्धक्षेत्रं मध्येऽष्टवेधक्रमहीनं बाहुल्यम् ॥ ५५७ ।। इस सिद्धक्षेत्रके ऊपर तनुवातवलयमें अष्टगुणयुक्त तथा अनन्त सुखसे सन्तुष्ट सिद्ध त भगवान् रहते हैं। आठवीं पृथ्वीके ऊपर सात हजार पचास धनुष जाकर सिद्धोंका निवास है। राजवार्तिकके अन्तमें लिखा है
तन्वी मनोज्ञा सुरभिः पुण्या परमभासुरा । प्रारभारा नाम वसुधा लोकनि व्यवस्थिता ॥ १६ ।। नृलोकतुल्य विष्कम्भा सितच्छत्रनिभा शुभा।
ऊध्वं तस्याः वितेः सिद्धाः लोकान्ते समवस्थिताः ।। २० ॥ त्रिलोकसारके मस्तकपर स्थित प्राग्भारा नामकी पृथिवी है जो तन्वी अर्थात् स्थूलतारहित है, मनोज्ञ है, सुगन्धयुक्त है, पवित्र है तथा अत्यन्त देदीप्यमान है।
वह पृथ्वी नरलोक तुल्य विस्तारयुक्त है। श्वेत वर्णके छत्र समान तथा शुभ है । उस पृथ्वीके ऊपर लोकके अन्त में सिद्ध भगवान् विराजमान हैं। सकल सिद्धोंका निवास स्थल ही यथार्थमें ब्रह्मलोक है । धवलवर्णयुक्त निर्वाण-स्थलमें महाधवल परणतियुक्त परमात्माका निवास पूर्णतया सुसंगत प्रतीत होता है।
सिद्ध, भगवानने राग-द्वेप, मोहादि विभावोंका त्याग कर स्वभावकी उपलब्धि की है। वे वीतराग हो चुके हैं। किसीकी स्तुतिसे वे प्रसन्न नहीं होते और न निन्द्रासे खिन्न ही
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