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सिरि भगवंतभूदबलिभडारयपणीदो
महाबंधो
[ पढमो पयडिबंधाहियारो]
[ अनुवादक का मंगल ] महाधवल नामसे प्रसिद्ध इस महाबन्ध महाशाखको टीकानिर्माणका कठिन कार्य निर्दोष तथा निरन्तराय सम्पन्न हो, इस कामनासे वेदनाखण्डकी धवलाटीकाके प्रारम्भमें वीरसेनाचार्यकृत मंगलगाथाओं द्वारा पंच-परमेष्ठीका पुण्य-स्मरण किया जाता है
सिद्धा दट्ठमला विसुद्धबुद्धीय लद्धसव्वत्था ।
तिहुवण-सिर-सेहरया पसियंत भडारया सव्वे ॥१॥ अर्थ-जिन्होंने ज्ञानावरणादि अष्ट प्रकारके कर्ममलको दग्ध कर दिया है, जिन्होंने विशुद्ध बुद्धि-केवलज्ञान-द्वारा समस्त पदार्थों की उपलब्धि की है-उनका पूर्ण बोध प्राप्त किया है, जो त्रिभुवनके मस्तकपर मुकुट के समान विराजमान हैं, वे सम्पूर्ण सिद्ध भट्टारक प्रसन्न होवें।
भावार्थ-आत्माका सहज स्वभाव अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त सुख तथा अनन्त वीर्य है। मोहनीय ज्ञानावरणादि कर्मोंका मल आत्मामें अनादिसे लगा हुआ है, जिससे यह संसारी आत्मा जगत्में परिभ्रमण किया करती है। सिद्ध भगवान्ने उस कममलका वंस कर दिया है। विशुद्धज्ञानके कारण समस्त पदार्थोंका बोध होता है। जिस प्रकार दर्पणके तलसे मल दूर होनेपर बाह्य वस्तुएँ स्वयमेव दर्पणकी निर्मलताके, कारण उसमें प्रतिबिम्बित होती हैं, उसी प्रकार कर्ममलरहित आत्मामें स्वतः सर्व पदार्थ झलकते हैं।
निर्मल तथा पूर्णबोधयुक्त होनेसे तथा कर्ममलरहित होने के कारण सिद्ध परमात्मा जगत्में श्रेष्ठ हैं। उनके द्वारा विश्व शोभित होता है। वे लोकके अग्रभागमें विद्यमान ईषत्प्राग्भार पृथ्वीके ऊपर अवस्थित हैं और ऐसे मालूम पड़ते हैं मानो त्रिभुवनके मस्तकपर मुकुट ही हो । यहाँ लोककी पुरुषाकृतिको दृष्टिमें रखकर सिद्धोंको मुकुट कहा गया है।
सिद्ध परमात्माकी निवासभूमिके विषयमें तिलोयपण्णत्तिमें इस प्रकार कथन किया गया है, "सर्वार्थसिद्धि इन्द्रक विमानके ध्वज-दण्डसे द्वादश योजन मात्र ऊपर जाकर आठवीं पृथ्वी स्थित है । उसके उपरिम और अधस्तन तल में से प्रत्येकका विस्तार पूर्व-पश्चिममें .
.. १. "सिद्धा गट्ठमला विमुद्धबुद्धीय लद्धसभावा......."-प्रा० सिद्धभ० श्लो०५।
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