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________________ मंगलायरणं दर्शन', अनन्त-दानादि नव केवल लब्धियोंको प्राप्त किया है, जिन्होंने अनेक विषम भवोंके :ख प्रदान करनेवाले कमशत्रुओंको जीता है--निर्जरा की है, वे जिन हैं। जिन्होंने घातिया कर्मों का नाश किया है वे सकल अर्थात् पूर्णरूपसे जिन कहलाते हैं। उनमें अरहन्त और सिद्ध गभित हैं । आचार्य, उपाध्याय तथा साधु एकदेश जिन कहे जाते हैं। शंका-इसपर विशेप प्रकाश डालनेकी दृष्टिसे सूत्रके टीकाकार बीरसेनाचार्य कहते हैं - यह सूत्र क्यों कहा गया ? समाधान-मंगलके लिए कहा गया है। पुनः प्रश्न उठता है कि मंगल क्या है ? पूर्वसंचित कर्मों का विनाश मंगल है। शंका-यदि मंगलका यह भाव है, तो यह सूत्र निष्फल है। कारण, जिनेन्द्र के मुखसे विनिर्गत है अर्थ जिसका, जो अविसंवादसे केवलज्ञान के समान है तथा वृषभसेनादि गणधर देवोंके द्वारा जिनकी शब्दरचना की गयी है ऐसे सर्व सूत्रोंके पठन, मनन तथा क्रियामें प्रवृत्त सम्पूर्ण जीवोंके प्रतिसमय असंख्यात गुणश्रेणी रूपसे पूर्व संचित कर्मोंकी निर्जरा होती है। कदाचित् यह मंगलसूत्र सफल है, तो ग्रन्थरूप सूत्रका अध्ययन निष्फल है, क्योंकि उससे उत्पन्न कर्मक्षयकी उपलब्धि इसके ही द्वारा हो जायेगी। समाधान-यह ठीक नहीं है। सूत्राध्ययन-द्वारा सामान्यरूपसे कोंकी निर्जरा होतो है, किन्तु इस मंगल सूत्रसे स्वाध्यायमें वित्रकारक कर्मका नाश होता है। इस कारण मंगल सूत्रका प्रारम्भ हुआ। शंका-तीन कपाय, इन्द्रिय तथा मोहका विजय करनेसे सकल जिनोंका नमस्कार पापनाशक हो, कारण उनमें सम्पूर्ण गुणोंका सद्भाव पाया जाता है, किन्तु यह वात देश जिनोंमें नहीं पायी जाती। अतः 'णमो जिणाणं' सूत्र-द्वारा अरहन्त-सिद्धंके सिवाय आचार्य, उपाध्याय और साधु परमेष्ठीका नमस्कार मानना युक्तियुक्त नहीं है । जिन दिमत्तम तय १. "मकलात्मपदेश - निबिड - निबघातिकममेघपटलविघटनप्रकटीभूतानन्तज्ञानादिनवकेवललब्धिवान जितः ।" -गो० जो० जी० प्र०। “अनेकविषमभवगहनदुःखद्यापणहेतुन् कर्मारातोन् जयन्ति, निर्जरयन्तीति जिनाः ।।" -गो० जी० मं० प्र०टी०। २. किमट्टमिदं वुच्चदे ? मंगलटुं । कि मंगलं. ? पवमंचियकम्मविणामो । जदि एवं तो जिणवयण विणिग्गयत्यादो अविसंबादेण वे वलणाणममाणादो उमरसेणादिगण दर देवेहि विरइयगदरयणादो सव्व मुत्तादो तप्पडण-गुणण-किरियावावाणं रावजीवाणं पडिसमयम. संवेज्जगणसेडीए पुवसंचिदकम्मणिज्जरा होदि त्ति णिफ्फलादिमुत्तमिदि । अह सफलमिदं, णिफ्फलं सत्तज्झयणं, तत्तो समवजायमाण कम्म वयस्म एत्थे वोवलंभो त्ति । ण एम दोसो, सुत्तज्झयणेण सामणकम्मणिज्जरा कीरदे एदेण पण मृत्तज्झयण-विग्घ-फल-कम्मविणासो कीरदि त्ति, भिषण विसयत्तादो मृत्तज्झयणविग्यफलकम्मविणासो मामण्णकम्मविरोहयुत्तन्भासादो चेव होदि ति मंगलमुत्तारंभो।"जिणा दुविहा सयल-देस जिणभेरण । खवियघाइकम्मा सयलजिणा । के ते ? अरिहंतसिद्धा। अवरे आइरिय-उवझाय-साहू देसजिणा, तिबकसायइंदियमोहविजयादो।" -धा टी वेल। ३. "सयलासयलजिपट्टियतिर यणाणं ण समाणतं, संपण्णासंपण्णाणं समाणतविरोहादी । मंपुषण-तिर यणक उजममपुण्ण-तिरयणाणि ण कति, असमाणत्तादो ति। ण, दमणणाणचरणाणमुप्पण्णममाण तुवलं भादो। ण च अममाणाणं क अममाण मेवेत्ति णियमा अस्थि, संपुष्णाग्गिणा कोरमागदाहकज्जम्म तदवयवेत्रि उवलं भादो। अमियघडमाण कीरमाण णिविसीकरणादिकज्जस्स अमियचलवेवि उवभादो वा। ण च तिरपणाणे देमजिट्टियाणं मयलजिणट्टिएहि भेो । एवं......"गोदमभडारओ महाकम्मपडियाहुइम्म पज्जवट्टियणवाणुगहणट्टमुत्तरमुत्ताणि भणदि ।''-ध०टी० वेदना०प० ६२३ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001388
Book TitleMahabandho Part 1
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages520
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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