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महाबंधे
समाधान-रत्नत्रयकी अपेक्षा पाँचों परमेष्ठी समान हैं, कारण सकल जिनोंके समान एकदेश जिनोंमें भी रत्नत्रय विद्यमान हैं। देवत्वके लिए रत्नत्रयके सिवाय अन्य कारण नहीं है । इससे सकल जिनोंके समान देशजिनोंका नमस्कार भी कर्मक्षयकारी जानना चाहिए।
शंका-सकल और असकल जिनोंके रत्नत्रयमें समानता नहीं पायी जाती है । सम्पूर्ण सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप रत्नत्रय और असम्पूर्ण रत्नत्रयमें समानताका विरोध है । सम्पूर्ण रत्नत्रयका कार्य असम्पूर्ण रत्नत्रय नहीं करते, कारण वे असमान हैं। ज्ञान, दर्शन और चारित्रमें समानताकी उपलब्धि नहीं पायी जाती है ?
समाधान- असमानोंका कार्य असमान ही होता है, ऐसा कोई नियम नहीं है । सम्पूर्ण अग्निके द्वारा क्रियमाण दाह-कार्यकी उपलब्धि उसके अवयवमें भी देखी जाती है। अमृतके शतघटों-द्वारा सम्पादित किया जानेवाला निर्विषीकरणरूप कार्य चुल्लू-भर अमृत में भी पाया जाता है। रत्नत्रयकी अपेक्षा देश तथा सकल जिनों में भेद नहीं पाया जाता है। ___ अब पर्यायार्थिक नयाश्रित जीवोंके कल्याणार्थ गौतमस्वामी आगामी सूत्रोंको कहते हैं
णमो ओहिजिणाणं ॥२॥ अर्थ-अवधिज्ञानी जिनोंको नमस्कार हो।
विशेषार्थ-यहाँ 'जिन' शब्दको अनुवृत्ति आगे भी करनी चाहिए । अवधिज्ञानी देव, नारकी, मनुष्य तथा तिर्यच भी होते हैं। उन सबको नमस्कार करनेसे क्या कर्मोको निर्जरा हो सकती है ? उससे तो कोका बन्ध ही होगा। 'जिन' शब्दका ग्रहण करनेसे ऐसी आशंकाका निराकरण हो जाता है। इससे रत्नत्रयसे भूषित अवधिज्ञानियोंको नमस्कार करना यहाँ इष्ट है।
णमो परमोहिजिणाणं' ॥ ३ ॥ अर्थ-परमावधिज्ञानधारी जिनोंको नमस्कार हो। णमो सव्वोहिजिणाणं ॥४॥ अर्थ--सर्वावधिज्ञानधारी जिनोंको नमस्कार हो। णमो अणंतोहि जिणाणं ॥५॥ अर्थ-अनन्त अवधिवाले जिनोंको नमस्कार हो। विशेषार्थ--अनन्त है अवधि-मर्यादा जिसकी, ऐसे केवलज्ञानधारक अनन्तावधि
जिनोंको नमस्कार हो
१. परमावधयश्च ते जिनाश्च परमावधिजिनाः तेभ्यो नमः । २. "ॐ ह्रीं अहं णमोहिजिणाणं..." -म०क०य.३। “ॐ ह्रीं अहं णमोहिबुद्धीणं"-भ०कल्य०१२। ३. 'ॐ ह्रीं अहं णमो सम्वोहिजिणाणं..."-भक०य०४। ४. "ॐ ह्रीं अहं णमो अणंतोहिजिणाणं...."-भक०य०५। ५. अन्तश्च अवधिश्न अन्तावधिः। न विद्यतेऽन्तो यस्य सः अनन्तावधिः। अभेदाज्जीवस्यापीय संज्ञा। अनन्तावधयश्च ते जिनाश्च अनन्तावधिजिनाः तेभ्यो नमः । भणंतोहिजिणा णाम केवलणाणिणो।
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