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मंगलायरणं
णमो कोहबुद्धीणं ॥६॥ अर्थ-कोष्ठबुद्धिधारी जिनोंको नमस्कार हो ।
विशेषार्थ--जिस प्रकार किसी कोठे में पृथक-पृथक् तथा सुरक्षित बहुत-से धान्यके बीजोंका संग्रह रहता है, उसी प्रकार कोष्ठबुद्धिनामक ऋद्धिमें परोपदेशके बिना ही तत्त्वोंके अर्थ, ग्रन्थ तथा बीजोंका अवधारण करके पृथक्-पृथक् अवस्थान किया जाता है। इस बुद्धि में कोष्ठके समान भिन्न-भिन्न बहुत तत्त्वोंकी अवधारणा रहती है ( तरा० अ०३, पृ० १४३ )।
तिलोयपण्णत्तिमें कहा है कि उत्कृष्ट धारणासम्पन्न कोई पुरुष गुरुके उपदेशसे नाना प्रकारके ग्रन्थोंसे विस्तारपूर्वक लिंगसहित शब्दरूप बीजोंको अपनी बुद्धि से ग्रहण करके बिना मिश्रणके अपनी बुद्धिरूपी कोठेमें धारण करता है, उसे कोष्ठबुद्धि कहते हैं (पृ० २७२) ।
णमो वीजवुद्धीणं ॥ ७ ॥ अर्थ-बीजबुद्धिधारी जिनोंको नमस्कार हो।
विशेषार्थ--जैसे सम्यक् प्रकार हल-बखरसे तैयार की गयी उपजाऊ भूमिमें योग्य कालमें बोया गया एक भी बीज बहुत बीजोंको उत्पन्न करता है, उसी प्रकार नोइन्द्रियावरण, श्रुतज्ञानावरण तथा वीर्यान्तराय कर्मके क्षयोपशम-प्रकर्षसे एक बीज पदके ग्रहण-द्वारा अनेक पदार्थोंको जाननेवाली बीजबुद्धि है । ( राजवा० पृ० १४३ )।
तिलोयपण्णत्तिमें कहा है-नोइन्द्रियावरण, श्रुतज्ञानावरण तथा वीर्यान्तराय इन तीन प्रकृतियोंके उत्कृष्ट क्षयोपशमसे विशुद्ध हुई किसी भी महर्षिकी जो बुद्धि, संख्यातस्वरूप शब्दोंके बीच में-से लिंगसहित एक ही बीजभूत पदको परके उपदेशसे प्राप्त करके उस पदके आश्रयसे सम्पूर्ण श्रुतको विस्तार कर ग्रहण करती है, वह बीज बुद्धि है ( पृ० २७२ ) ।
णमो पदाणुसारीणं ॥८॥ अर्थ--पदानुसारी ऋद्धिधारी जिनोंको नमस्कार हो ।
विशेषार्थ-दूसरे व्यक्तिसे एक पदके अर्थको सुनकर आदि, मध्य तथा अन्तके शेष प्रन्थार्थका निश्चय करना पदानुसारित्व है। यह अनुश्रोत, प्रतिश्रोत तथा उभयरूप तीन प्रकार है। तिलोयपण्णत्ति में कहा है-जो बुद्धि आदि, मध्य अथवा अन्त में गुरुके उपदेशसे एक बीज पदको ग्रहण करके उपरिम ग्रन्थको ग्रहण करती है वह अनुसारिणी बुद्धि है । गुरुके उपदेशसे आदि, मध्य अथवा अन्त में एक बीज पदको ग्रहण करके जो बुद्धि अधस्तन ग्रन्थको जानती है, वह प्रतिसारिणी बुद्धि कहलाती है । जो बुद्धि नियम अथवा अनियमसे एक बीज शब्दको ग्रहण करनेपर उपरिम और अधस्तन ग्रन्थको एक साथ जानती है वह उभयसारिणी है । ये पदानुसारित्वके तीन भेद हैं । (गा०९८१-८३ )।
णमो संभिण्णसोदाराणं ॥ ६॥ अर्थ-सम्भिन्नश्रोतृत्व नामक ऋद्धिधारी जिनोंको नमस्कार हो।
१. 'ॐ ह्रीं अर्ह णमो कुट्ट बुद्धोणं...."-भ० क० य०६। २. "ॐ ह्रीं अहं णमो बीजबुद्धोणं...." भ० क० य०७। ३. "ॐ ह्रीं अर्ह णमो अरिहंताणं णमो पादानुसारोणं....''-भ० कया ८। ४. "ॐ ह्रीं अहै णमो अरिहंताणं णमो संभिण्णसोदराणं..."-भ० क. य० ९ । ५. सम्यक श्रोत्रेन्द्रियावरणक्षयोपशमन भिन्ना: अनुविद्धाः संभिन्नाः। संभिन्नारच ते श्रोतारश्च संभिन्नश्रोतारः ।
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