SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 137
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १२. महाबंधे विशेषार्थ- नौ योजन लम्बी, बारह योजन चौड़ी चक्रवर्तीकी सेनाके हाथी, घोड़ा, ऊँट तथा मनुष्यादिकों के एक साथमें उत्पन्न अक्षरात्मक, अनक्षरात्मक अनेक प्रकारके शब्दोंको तपोबलविशेषके कारण सर्वजीव-प्रदेशोंमें कर्ण-इन्द्रियका परिणमन होनेसे सर्व शब्दोंका एक कालमें ग्रहण करना सम्भिन्नश्रोतृत्व ऋद्धि है। तिलोयपरणत्तिमें कहा है--श्रोत्रेन्द्रियावरण, श्रुतज्ञानावरण तथा वीर्यान्तरायका उत्कृष्ट क्षयोपशम तथा अंगोपांग नाम कर्मके उदय होनेपर श्रोत्रेन्द्रियके उत्कृष्ट क्षेत्रसे बाहर दसों दिशाओं में संख्यात योजनप्रमाण क्षेत्रमें स्थित मनुष्य एवं तिथंचोंके अक्षरात्मक-अनक्षरात्मक बहुत प्रकार के उत्पन्न होनेवाले शब्दोंको सुनकर जिससे उत्तर दिया जाता है वह सम्भिन्नश्रोतृत्व है। णमो उजुमदीणं' ॥ १० ॥ अर्थ-ऋजुमति मनःपर्यय ज्ञानी जिनोंको नमस्कार हो । णमो विउलमदीणं ॥ ११ ॥ अर्थ--विपुलमति मनःपर्यय ज्ञानी जिनोंको नमस्कार हो । णमो दसपुब्बीणं ॥ १२ ॥ अर्थ-दहा पूर्वधारी जिनोंको नमस्कार हो । विशेषार्थ--महारोहिणी आदि विद्याओंके द्वारा अपने रूप, सामर्थ्य आदिका प्रदर्शन करनेपर भी अडिग चारित्रधारीका जो दशमपूर्व रूप दुस्तर-सागरके पार पहुँचना है, वह दशपूर्वित्व है । यहाँ जिन शब्दकी अनुवृत्ति होनेसे अभिन्नदशपूर्वित्वका ग्रहण किया है । तिलोयपण्णनिमें कहा है-दशम पूर्व के पढ़ने में रोहिणी आदि पाँच सौ महाविद्याओं तथा अंगुष्ठप्रसेनादिक सात सौ क्षुद्र विद्याओंके द्वारा आज्ञा माँगनेपर भी जो महर्षि जितेन्द्रिय होने के कारण उन विद्याओंकी इच्छा नहीं करते हैं, वे 'विद्याधरश्रमण' या 'अभिन्नदशपूर्वी कहलाते हैं । (पृ. २७४) । णमो चोदसपुवीणं ॥ १३ ॥ अर्थ--चौदह पूर्वधारी जिनोंको नमस्कार हो। विशेषार्थ--जो सम्पूर्ण श्रुत केवलीपनेको प्राप्त हैं, वे चतुर्दशपूर्वी कहलाते हैं। १. "ॐ ह्रीं अहं णमो ऋजुमदाणं...."-भ० क. य० १३। २. "ॐ ह्रीं अहं णमो विउ. लमदीणं ..." भ० क. य० १४। ३. "ॐ ह्रीं अर्ह णमो दसवीणं..." -भ० क. य०१५। ४. "एत्थ दसविणो भिण्णाभिण्णभेएण दुविहा होति । भिण्णदसवीणं कथं पडिणियत्ती? जिणसहाणवत्तीदो। ण च तेलि जित्तमत्यि, भगमहत्वएसु जिणत्ताणुववत्तीदो।"-ध० टी०। ५. "ॐ ह्रीं अहं णमो चउदसवीणं..'' --भ० क० य०१६। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001388
Book TitleMahabandho Part 1
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages520
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy