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________________ मंगलायरणं णमो अट्ठगमहाणिमितकुसलाणं ॥ १४ ॥ अर्थ - अष्टांग महानिमित्त विद्या में प्रवीण जिनोंको नमस्कार हो । विशेषार्थ - अन्तरिक्ष, भौम, अंग, स्वर, व्यंजन, लक्षण, छिन्न और स्वप्नये आठ महानिमित्त कहे जाते हैं । सूर्य, चन्द्र, ग्रह, नक्षत्र, ताराओंके उदय, अस्त आदिसे भूतभविष्यत्सम्बन्धी फलका ज्ञान करना अन्तरिक्षज्ञान है । पृथ्वीके घन, सुषिर, रूक्षतादिके ज्ञानसे अथवा पूर्वादि दिशाओं में सूत्रनिवास करनेसे वृद्धि, हानि, जय, पराजय आदिका ज्ञान करना तथा भूमि में छिपे हुए स्वर्ण, चाँदी आदिका परिज्ञान करना भौमज्ञान है । अंग- उपांगों के देखने आदि त्रिकालवर्ती सुख-दुःखादिको जान लेना अंगज्ञान है । अक्षरात्मक या अनक्षरात्मक शुभ-अशुभ शब्दको सुनकर इष्ट-अनिष्ट फलको जान लेना स्वरज्ञान है । मस्तक, ग्रीवा आदि में तिल, मशक आदि चिह्नोंको देखकर त्रिकालसम्बन्धी हित-अहितका जानना व्यंजनज्ञान है । श्रीवृक्ष, स्वस्तिक, भृंगार, कलश आदि लक्षणों को देखकर त्रिकालवर्ती स्थान, मान, ऐश्वर्य आदिका विशेष ज्ञान करना लक्षण नामक निमित्तज्ञान है । वस्त्र, शस्त्र, छत्र, जूता, आसन, शयनादिकों में देव, मानुप, राक्षसादि विभागों से शस्त्र, कण्टक, चूहा आविकृत छेदनको देखकर त्रिकालसम्बन्धी हानि, लाभ, सुख, दुःखादिको सूचित करना छिन्न नामक ज्ञान है। बात, पित्त, कफ दोषोंके उदयसे रहित व्यक्ति रात्रिके पिछले भाग में, चन्द्र, सूर्य, पृथ्वी, समुद्र आदिका अपने मुख में प्रवेश करना सम्पूर्ण पृथ्वीमण्डलका उपगृह्न आदि शुभ स्वप्न तथा घृत या तैललिप्त अपना शरीर देखना, गर्दर्भ, ऊँटपर चढ़े हुए इधर-उधर भटकते फिरना आदि अशुभ स्वप्न के दर्शन से आगामी जीवन, मरण, सुख, दुःखादिका ज्ञान करना स्वप्नज्ञान है । इन महानिमित्तों में जो कुशलता है, वह अष्टांगमहानिमित्तता है । ( ० रा० पृ० १४३ ) । १३ णमो उव्वणपत्ताणं ।। १५ ।। अर्थ - वैक्रियिक ऋद्धिधारी जिनोंको नमस्कार हो । विशेषार्थ - विक्रियाको विषय करनेवाली ऋद्धिके अनेक भेद हैं। जैसे अणिमा, महिमा, लधिमा, गरिमा, प्राप्ति, प्राकाम्य, ईशित्व, वशित्व, अप्रतिघात, अन्तर्धान, कामरूपित्व आदि । शरीरको अत्यन्त छोटा करना 'अणिमा' है । इस ऋद्धिके प्रभाव से कमल - मृणाल के छिद्र में प्रवेश करके वहाँ ठहरने तथा चक्रवर्तीके परिवारकी विभूतिको उत्पन्न करनेकी सामर्थ्य प्राप्त होती है | अपने शरीरको मेरु पर्वत से भी विशाल करना 'महिमा' ऋद्धि है | शरीरको वायुसे भी हलका करना ‘लघिमा ' है | शरीरको वज्र से भी अधिक भारी बनाना 'गरिमा' है । भूमिपर स्थित रहते हुए भी अंगुली के कोनेसे मेरु, शिखर, सूर्य आदिका स्पर्शन करनेकी सामर्थ्यको 'प्राप्ति' कहते हैं । जल में पृथ्वीके समान चलना, भूमिपर जलके 'समान तैरना 'प्राकाम्य' ऋद्धि है। तीन लोककी प्रभुता 'ईशित्व' है । सम्पूर्ण जीवोंको वश करने की सामर्थ्य 'वशित्व' है । पर्वतके भीतर भी आकाश में गमनागमन के समान बिना रुकावट के आना-जाना 'अप्रति १. ॐ ह्रीं अर्ह णमो अट्टांगमहानिमित्त कुसलाणं -भ० क० य० १७ । २. " अंगं सरो वंजणखणाणि छष्णं च भीमं सुमिणंतरिखखं । एदे निमित्ते हि पराहि णिच्चा जाणंति लोयस्स सुहासुहाई || " -ध० टी० प० ६२७ । ३. देव, दानव, राक्षस, मनुष्य और तिर्यचोंके द्वारा छेदे गये शास्त्र एवं वस्त्रादिक तथा भवन नगर और देशादि चिह्नोंको देखकर त्रिकालभावी शुभ, अशुभ, मरण, विविध प्रकार के द्रव्य और सुखदुःखको जानना यह चिह्न निमित्त ज्ञान है । यहाँ छिन्न' का नाम 'चिह्न' दिया गया है । -ति०प० पृ० २७६ । For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001388
Book TitleMahabandho Part 1
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages520
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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