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महाबंधे
घात' है। अदृश्य रूप होनेकी सामर्थ्य 'अन्तर्धान' है। युगपत् अनेक आकार और रूप बनानेकी शक्ति 'कामरूपित्व' है।
___ यहाँ जिन शब्दकी अनुवृत्ति होनेसे अष्टगुण ऋद्धि होते हुए भी देवोंका ग्रहण नहीं किया गया है,कारण,देवोंमें संयमका अभाव है,अतः वे 'जिन' नहीं हैं।
णमो विज्जाहराणं ॥१६॥ अर्थ-विद्याधारी जिनोंको नमस्कार हो।
विशेषार्थ-विद्या तीन प्रकारकी होती हैं। मातृ पक्षसे प्राप्त जाति विद्या है । पितृपक्षसे प्राप्त कुलविद्या है । षष्ठ, अष्टम आदि उपवास करनेसे सिद्ध की गयी तपविद्या है। यहाँ देव तथा विद्याधरोंका ग्रहण नहीं किया गया है, कारण वे जिन नहीं हैं।
णमो चारणाणं ॥ १७ ॥ अर्थ-चारणऋद्धिधारी जिनोंको नमस्कार हो।
विशेषार्थ-जल, जंघा, तन्तु, पुष्प, पत्र, अग्नि-शिखादिके आलम्बनसे गमन करना 'चारण' ऋद्धि है। कुँआ, बावड़ी आदिमें जलकायिक जीवोंकी विराधना नहीं करते हुए भूमिके समान चरणोंके उठाने-धरनेकी प्रवीणताको 'जलचारण' कहते हैं । भूमिसे चार अंगुल ऊँचे आकाशमें जंघाके उठाने-धरनेकी कुशलतासे सैकड़ों योजन गमन करनेकी प्रवीणता 'जंघाचारण' है। इसी प्रकार इस ऋद्धिके अन्य भेद हैं।
णमो पण्हसमणाणं ॥ १८ ॥ अर्थ-'प्रज्ञाश्रमण जिनोंको नमस्कार हो।
विशेषार्थ-असाधारण प्रज्ञाशक्तिधारी प्रज्ञाश्रमण कहलाते हैं। अत्यन्त सूक्ष्म तत्त्वार्थचिन्तनके प्रभावसे चौदह पूर्वोके विषयमें पूछे जानेपर जो द्वादशांग, चतुर्दश पूर्वको बिना पढ़े हुए भी उत्कृष्ट श्रुतावरण और वीर्यान्तरायके क्षयोपशमसे उत्पन्न असाधारण प्रज्ञाशक्तिके लाभसे स्पष्ट निरूपण करते हैं वे प्रज्ञाश्रमणधारी हैं।
तिलोयपण्णत्ति (पृ. २७७ ) में प्रज्ञाके चार भेद कहे हैं-औत्पत्तिकी, पारिणामिको, वैनयिकी तथा कर्मजा। भवान्तर में कृत श्रुतके विनयसे उत्पन्न होनेवाली औत्पत्तिकी, निजनिज जातिविशेष में उत्पन्न हुई पारिणामिकी, द्वादशांगश्रुतकी विनयसे उत्पन्न वैनयिकी एवं उपदेशके बिना तपविशेषके लाभसे उत्पन्न कर्मजा कहलाती है।
१. "अट्रगणाजुत्ताण देवाण एसा णमाक्काराकिण्ण पाबद! ण ए
देवाणं एसो णमोक्कारोकि.ण्ण पाबदे?ण एस दोसो, जिणसहाणवणेण तष्णिराकरणादो। ण च देवाणं जिणत्तमस्थि। तत्थ संजमाभावादो॥"-ध०टी० । २. "ॐ ह्रीं अर्ह णमो विज्जाहराणं"-भ० क. य० १९ । ३. "तत्थ सगमादुपक्खादो लद्धविज्जाओ जादिविज्जाओ णाम । पिदुपक्सलदाओ कुलविज्जाओ। छट्टट्ठमादिउववासविहाणेहि साहिदाओ तवविज्जाओ । एवमेदाओ. तिविहाओ हाँति ।"-ध०टी०। ४. “ॐ ह्रीं अहं णमो चारणाणं"-भ० क० य०२०। ५. "ॐ ह्रीं अर्ह णमो पणसमणाणं..."-भक० य०२१। ६. "औत्पत्तिको वनयिको कर्मजा पारिणामिकी चेति चतुविधा प्रशा। प्रज्ञा एव श्रवणं येषां ते प्रज्ञाश्रवणाः । असंजदाणं न पण्णसमणाणं गहणं जिणस हाणउत्तीदो।" -ध० टी०।
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