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मंगलायरणं
यहाँ जिन'शब्दकी अनुवृत्ति रहनेसे असंयतोंका निराकरण हो जाता है । णमो आगासगामीणं ॥१६॥ अर्थ-आकाशगामी जिनोंको नमस्कार हो ।
विशेषार्थ--पल्यंकासन वा कायोत्सर्ग आसनसे ही पैरोंको बिना उठाये-धरे आकाशमें गमन करनेकी विशेषताको आकाश-गमन ऋद्धि कहते हैं । यहाँ जिन शब्दकी अनुवृत्ति रहनेके कारण देव विद्याधरोंका निराकरण हो जाता है। ..
णमो आसीविसाणं ॥२०॥ अर्थ-आशीविष ऋद्धिधारी जिनोंको नमस्कार हो ।
उग्र विपयुक्त आहार भी जिनके मुखमें जाकर निर्विष हो जाता है वा जिनके मुखसे निकले हुए वचनोंके श्रवणसे महाविषयुक्त व्यक्ति निर्विष हो जाता है, वे 'आस्याविष' ऋद्धिधारी हैं । महान तपोबलसे विभूषित यतिजन जिसको कहें 'तू मर जा' वह तत्क्षण ही महाविषयुक्त हो मृत्युको प्राप्त हो जाता है, वह 'आस्यविष' ऋद्धि है । इस प्रकार 'आस्य अविष' तथा 'आस्य विष' दोनों प्रकारके अर्थ कहे गये हैं ।
णमो दिठिविसाणं ॥२१॥ अर्थ-दृष्टिविष ऋद्धिधारी जिनोंको नमस्कार हो ।
विशेषार्थ-जिनके देखने मात्रसे अत्यन्त तीव्र विषसे दूषित भी प्राणी विषरहित हो जाता है वे 'दृष्टिविष' ऋद्धिधारी हैं। उग्र तपस्वी मुनिजन क्रुद्ध हो जिसे देख लें, वह उसी समय उग्र विषयुक्त हो मर जाता है। इसे भी दृष्टिविष ऋद्धि कहते हैं। यहाँ भी 'जिन' शब्दकी अनुवृत्ति है, अन्यथा दृष्टिविष सोको भी प्रणामका प्रसंग आतां । यद्यपि साधुजन तोष अथवा रोषसे मुक्त हैं, फिर भी तपस्याके कारण उनमें उपर्युक्त विशेष शक्ति उत्पन्न हो जाती है, जिसका उपयोग वीतराग ऋषिगण नहीं करते हैं।
णमो उग्गतवाणं ॥ २२॥ अर्थ-उग्र तपवाले जिनोंको नमस्कार हो।
विशेषार्थ-एक, दो, तीन, चार, पाँच, छह दिन वा पक्ष मासादिके अनशन योगों में किसी भी रूपके उपवासको प्रारम्भ करके मरणपर्यन्त भी उस योगसे विचलित नहीं होना उग्रतप ऋद्धि है।
१. "ॐ ह्रीं अहं णमो आगासगामीणं"- भ० क० य० २२। २. "ॐ ह्रीं अहं णमो आसीविसाणं"-भ० क० य० २३ । ३. "अविद्यमानस्यार्थस्य अशंसमाशी:. आशीविषं येषां ते आशीविषाः। तवोवलेण एवंविहात्तिसंजतवयणा होदूण जे जीवाणं णिग्गहाणग्गहं ण कूर्णति । ते आसीविसा ति घेतवा । कुदो ? जिणाणुउत्तीदो। ण च णिग्गहाणुग्गहेहि संदरिसिदरोसतोसाणं जिणत्तमस्थि विरोधादो।" -ध० टी०। ४. "ॐ ह्रीं अहं णमो दिद्विविसायं..." :-भ० क० य० २४ । ५. "दृष्टिरिति चक्षुर्मनसोर्ग्रहणं । जिणाणमिदि अणुक्ट्टदे, अण्णहा दिट्ठिविसाणं सप्पाणं पि णमोक्कारप्प
संगादो।" -ध० टी०। ६. "ॐ ह्रीं अहं णमो उगतवाणं..." -भ० क० य० २५ । Jain Education International For Private & Personal Use Only
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