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________________ १५ महाबंधे णमो दित्ततवाणं ॥ २३ ॥ अर्थ-दीप्त तपवाले जिनोंको नमस्कार हो । विशेषार्थ-महान् उपवास करनेपर भी जिनकी मन, वचन, कायकी शक्ति बढ़ती हुई ही पायी जाती है, जो दुर्गन्धरहित मुखवाले, कमल-उत्पलादिकी सुगन्धके समान श्वासवाले तथा शरीरकी महाकान्तिसे सम्पन्न हैं, वे दीप्ततपस्वी जिन हैं। णमो तत्ततवाणं ॥ २४ ॥ अर्थ-तप्त तपवाले जिनोंको नमस्कार हो। विशेषार्थ-तप्त लोहेकी कढ़ाई में पतित जलकणके समान शीघ्र ही जिनका अल्प आहार शुष्क हो जाता है, उसका मल रुधिरादि रूपमें परिणमन नहीं होता वे तप्ततपस्वी हैं। णमो महातवाणं ॥२५॥ अर्थ-महातपधारी जिनोंको नमस्कार हो । विशेषार्थ-सिंह निष्क्रीडितादि महान् उपवासादिके अनुष्ठानमें परायण महातपस्वी कहलाते हैं। णमो घोरतवाणं ॥ २६ ॥ अर्थ-घोर तपधारी जिनोंको नमस्कार हो । विशेषार्थ-वात, पित्त, कफकी विषमतासे उत्पन्न ज्वर, खाँसी, श्वास, नेत्रपीड़ा, कुष्ठ, प्रमेहादि रोगोंसे पीड़ित शरीरयुक्त होते हुए भी जो अनशन, कायक्लेशादि तपांसे अविचलित रहते हैं तथा भयंकर श्मशान, पर्वत-शिखर, गुहा, दरी, शून्य ग्राम आदिमें, जहाँ अत्यन्त दुष्ट,यक्ष, राक्षस,पिशाच,बेताल भयंकर रूपका प्रदर्शन कर रहे हैं एवं जहाँ शृगालके कठोर शब्द, सिंह, व्याघ्र, सर्प आदिके भीषण शब्द हो रहे हैं,ऐसे भयंकर प्रदेशों में सहर्ष रहते हैं वे घोर तपस्वी हैं। णमो घोरपरकमाणं ॥ २७ ॥ अर्थ-घोर पराक्रमवाले जिनोंको नमस्कार हो। विशेषार्थ-पूर्वोक्त तपस्वी जब ग्रहण किये गये तपकी साधनामें वृद्धि करते हैं, तब वे घोर पराक्रमी कहलाते हैं। __ तिलोयपण्णत्ति (पृ० २८१ ) में कहा है-जिस ऋद्धि के प्रभावसे मुनिजन अपनी अनुपम सामर्थ्यसे कण्टक, शिला, अग्नि, पर्वत, धूम्र और उल्का आदिके पात करने में तथा सागरके समस्त जलका शोषण करनेमें समर्थ होते हैं, वह घोर पराक्रम ऋद्धि है। १. "ॐ ह्रीं अर्ह णमो दित्ततवाणं...." -भ० क० य०२६। २. "ॐ ह्रीं अर्ह णमो तत्ततवाणं...." -भ० क० य०२७। ३. "ॐ ह्रीं अहं णमो महातवाणं..."-भ० क० य०२८। ४. "ॐ ह्रीं अहं णमो घोरतवाणं.." -भ० क० य०२९ । '५. "घोरा र उद्दा गुणा जेसि ते घोरगुणा । कथं चौरासीदिलक्खगुणाणं घोरतं? घोरकज्जकारिसत्तिजणणादो। तसि घोरगणाणं णमो इदि उत्तं होदि।" -ध० टी०। ६. "ॐ ह्रीं अहं णमो घोरपरक्कमाणं..." -भ० क० य०३१। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001388
Book TitleMahabandho Part 1
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages520
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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