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________________ मंगलाय रणं णमो घोरगुणाणं ॥ २८ ॥ अर्थ - घोर गुणवाले जिनोंको नमस्कार हो । णमोsघोर गुण बह्मचारीणं ॥ २९ ॥ २ अर्थ-अघोर ब्रह्मचर्यधारी जिनोंको नमस्कार हो । विशेषार्थ - वीरसेनाचार्य कहते हैं - जिनमें तपोमाहात्म्यसे मारी आदि रोग, दुर्भिक्ष, वैर, कलह, वध, बन्धन आदिके प्रशमन करनेकी शक्ति उत्पन्न हो जाती है, वे अघोर ब्रह्मचारी हैं। देवांगनाओंके द्वारा आलिंगनादि किये जानेपर भी वे निर्विकार परिणामयुक्त रहते हैं । १७ अकलंक स्वामी राजवार्तिक ( पृ० १४४ ) में अघोरके स्थानमें घोर पाठ मानकर यह अर्थ करते हैं - जो चिरकालसे अखण्ड ब्रह्मचर्यके धारक हैं और चारित्रमोहके उत्कृष्ट क्षयोपशमसे जिनके दुःस्वप्नोंका विनाश हो चुका है वे घोर ब्रह्मचारी हैं । तिलोयपणत्तिकार ( पृ० २८२ ) कहते हैं - जिस ऋद्धिसे मुनिके क्षेत्र में चोरादिककी बाधा, दुष्काल तथा महायुद्ध आदि नहीं होते हैं, वह अघोर ब्रह्मचारित्व है, अथवा चारित्रनिरोधक मोहनीय कर्मका उत्कृष्ट क्षयोपशम होनेसे जो ऋद्धि दुःस्वप्नोंको दूर करती है वह अघोर ब्रह्मचारित्व है; अथवा जिस ऋद्धिके होनेसे महर्षिजन सब गुणों के साथ अघोर अर्थात् अविनाशी ब्रह्मचर्यका आचरण करते हैं, वह अवोरब्रह्म वारित्व है । ४ णमो आमोसहिपत्ताणं ॥ ३० ॥ अर्थ - जिनका आम अर्थात् अपक्वाहार औषधिरूपताको प्राप्त हो, उन जिनों को नमस्कार हो । तिलोयपण्णत्ति में इसे आमशौषधि कहा है । वहाँ लिखा है, जिस ऋद्धिके प्रभाव से जीव पास में आनेपर ऋषिके हस्त व पादादिके स्पर्शसे ही नीरोग हो जाते हैं वह आमशौषधि है ( ति० प० पृ० २८३ ) । णमो खेलो सहि पत्ताणं ॥ ३१ ॥ अर्थ - लौषधि प्राप्त जिनोंको नमस्कार हो । विशेषार्थ - जिनका निष्ठीवन ( थूक ) औषधिरूप अर्थात् रोगनिवारक होता है, वे मुनिराज क्ष्वेौषधि प्राप्त हैं । १. "ॐ ह्रीं अहं णमो घोरगुणाणं " - भ० क० य० ३० । २. "ॐ ह्रीं अहं णमो घोरगुणबंभचारीणं..." - भ० क० य० ३२ । घोरो दुर्धरो गुणो निरतिचारतालक्षणो यस्य तद्घोरगुणम्, दिव्याङ्गनालिङ्गनादिभिरप्यक्षुभितचित्तम् - प्रतिक्र मणग्रन्यत्रयी पृ० ९४ । ३. "ब्रह्म चारित्रं पञ्चव्रतसमितित्रिगुप्त्यात्मकं शान्तिमुष्टिहेतुत्वात् । अघोराः अन्ताः गुणाः यस्मिन् तदघोरगुणम् अघोरगुणं ब्रह्म चरन्तीति अघोरगुणब्रह्मचारिणः । जेसि तवोमाहप्पेण मारिदुब्भिक्ग्वत्रे र कलहबधबंधणरोगादिपसमणती समुपणा ते अघोरगुणबंभचारिणो त्ति उत्तं होदि । एत्य अकारो किष्ण सुणिज्जदे ? संविणिद्दे सादो ।" - ध० टी० । ४. आमोऽमक्वाहारः स एबोषधिः तां प्राप्ता आमीषधिप्राप्ताः- प्रतिक्र० पृ० ९४ । ५. ॐ ह्रीं अहं णमो खिल्लो सहिपत्ताणं ।" - भ० क० ० ३४ । ३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001388
Book TitleMahabandho Part 1
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages520
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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