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________________ महाबंधे णमो जल्लोसहिपत्ताणं ॥ ३२ ॥ अर्थ-जल्लौषधि ऋद्धिप्राप्त जिनोंको नमस्कार हो। विशेषार्थ-पसीने से मिले हुए धूलिसमूहरूप मलको जल्न कहते हैं। जिन मुनियोंका जल्ल औषधिरूप होता है, वे जल्लौषधि प्राप्त जिन कहलाते हैं। णमो विट्ठोसहिपत्ताणं ॥ ३३ ॥ अर्थ-जिनका मल औषधिरूप परिणत हो गया है, उन जिनोंको नमस्कार हो । विशेषार्थ-जिनका मूत्र-पुरीषादि मल रोगनिवारक होता है, वे विष्ठौषधिप्राप्त हैं। महान् तपश्चर्या के प्रभावसे यह सामर्थ्य प्राप्त होती है। णमो सव्वोसहिपत्ताणं ॥ ३४ ॥ अर्थ-सौषधि ऋद्धिप्राप्त जिनोंको नमस्कार हो। विशेषार्थ-जिन ऋषियोंके अंग, प्रत्यंग, नख, दन्त, केशादि स्पर्श करनेवाले जल, पवनादि जीवोंके लिए औषधिरूप परिणत हो जाते हैं, वे सर्वौषधिप्राप्त जिन हैं। णमो मणवलीणं ॥ ३५ ॥ अर्थ-मनबलधारी जिनोंको नमस्कार हो। विशेषार्थ-नोइन्द्रियावरण, श्रुतज्ञानावरण तथा वीर्यान्तणय कर्मके क्षयोपशमके प्रकर्षसे अन्तर्मुहूर्त में ही सम्पूर्ण श्रुतके अर्थ-चिन्तनमें प्रवीण मनोबली हैं । णमो वचिवलीणं" ॥ ३६॥ अर्थ-- वचनबली जिनोंको नमस्कार हो। विशेषार्थ-मन, रसना तथा श्रुतज्ञानावरण एवं वीर्यान्तरायके क्षयोपशमके अतिशयसे जो अन्तर्मुहूर्त में सम्पूर्ण श्रुतके उच्चारण करनेमें समर्थ हैं तथा निरन्तर उच्चस्वरसे उच्चारण करनेपर भी जो श्रमरहित एवं कण्ठके स्वर में हीनतारहित हैं, वे ऋषि वचनबली हैं । णमो कायबलीणं ॥ ३७॥ अर्थ-कायबली जिनोंको नमस्कार हो। विशेषार्थ-वीर्यान्तरायके क्षयोपशमसे उत्पन्न असाधारण शरीरबल होनेसे मासिक, चातुर्मासिक, वार्पिक आदि प्रतिमायोग धारण करते हुए भी जिन्हें खेद नहीं होता,वे मुनिवर कायबली हैं। तिलोयपण्णत्ति ( पृ० २८३ ) में कहा है-जिस ऋद्धिके बलसे वीर्यान्तरायका उत्कृष्ट भयोपशम होनेपर मुनिराज मास वा चातुर्मास आदि कायोत्सर्ग करते हुए भी श्रमरहित १. "ॐ ह्रीं अहं णमो जल्लोसहिपत्ताणं"-भ० क० य०३५। २. "ॐ ह्रीं अहं णमो विट्ठोसहिपत्ताणं"-भ० क. य०३६। ३. "ॐ ह्रीं अहं णमो सम्बोसहिपत्ताणं" -भ० क० य०३३-३७ । ४. "ॐ ह्रीं अहं णमो मणवलीणं"-भ० क० य०३८। ५. "ॐ ह्रीं अर्ह णमो वचबलीणं" -भ०क० य०३९ । ६. "ॐ ह्रीं अहं णमो कायबलोणं" -भ० क० य०४०। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001388
Book TitleMahabandho Part 1
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages520
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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