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________________ मंगलायरणं १६. होते हैं तथा शीघ्र ही तीनों लोकोंको कनिष्ठ अंगुलीपर उठाकर अन्यत्र धरने में समर्थ होते हैं, वह कायबल नामकी ऋद्धि है । ។ णमो खीर सवीणं ॥ ३८ ॥ अर्थ-क्षीरस्रवी ऋद्धिधारी जिनोंको नमस्कार हो । विशेषार्थ - नीरस भोजन भी जिनके हस्त-पुट में रखे जानेपर क्षीर-गुणरूप परिणमन करता है वा जिनके वचन क्षीण व्यक्तियोंको दुग्धके समान तृप्ति प्रदान करते हैं, वे क्षीरस्रवी हैं । तवार्थराजवार्तिक ( पृ० १४५ ) में क्षीरास्रवी' पाठ ग्रहण किया है । णमो सप्पिसवीणं ॥ ३६ ॥ अर्थ - घृतस्रवी जिनोंको नमस्कार हो । विशेषार्थ - रूक्ष भोजन भी जिनके कर पात्रमें पहुँचते ही घृत के समान शक्तिदायक हो जाता है अथवा जिनका सम्भाषण जीवोंको घृत सेवन के समान तृप्ति पहुँचाता है, वे घृतस्रवी हैं । णमो महुसवणं ॥ ४० ॥ अर्थ - मधुस्रवी जिनोंको नमस्कार हो । विशेषार्थ - जिनके हस्त-पुट में रखा हुआ नीरस आहार भी मधुर रसपूर्ण तथा शक्तिसम्पन्न हो जाता है, अथवा जिनके वचन दुःखी श्रोताओंको मधुके समान सन्तोष देते हैं, मधुस्रवी हैं। यहाँ 'मधु' शब्दका तात्पर्य मधुररसवाले गुड़, खाँड़, शर्करा आदि है, कारण उन सबमें मधुरता पायी जाती है । णमो अमइसवीणं ॥ ४१ ॥ अर्थ - अमृतस्रवी जिनोंको नमस्कार हो । विशेषार्थ - जिनके हस्त-पुट में पहुँचकर कोई भी भोज्य वस्तु अमृतरूप हो जाती है, अथवा जिनकी वाणी जीवोंको अमृत तुल्य कल्याण देती है, वे अमृतस्रवी हैं । 12 णमो अक्खीणमहाण साणं ॥ ४२ ॥ अर्थ --अक्षीण महानस ऋद्धिधारी जिनोंको नमस्कार हो । विशेषार्थ--लाभान्तरायके क्षयोपशमके उत्कर्षको प्राप्त मुनीश्वरोंको जिस पात्रसे आहार दिया जाता है, उससे यदि चक्रवर्तीका कटक भी भोजन करे, तो उस दिन अन्नकी कमी न पड़े यह अक्षीण महानस ऋद्धि है । तिलोयपण्णत्ति ( पृ० २८५ ) में कहा है--लाभान्तरायके क्षयोपशम से संयुक्त मुनिराज के भोजनानन्तर भोजनशालाके अवशिष्ट अन्नमें से जिस किसी भी प्रिय वस्तुका उस दिन चक्रवर्तीके कटकको भोजन करानेपर भी लेशमात्र क्षीण न होना अक्षीण महानस ऋद्धि है । १. "ॐ ह्रीं अहं णमो खीरसवीणं" - भ० क० य० ४२ । २. ॐ ह्रीं अहं णमो महरसवीगं"भ० क० य० ४३ । ३. " महुवयणेण गुडखंडसक्करादीणं गणं महरसादं पडि एदासि साहम्मुवलंभादो ।" ध० टी० । ४. ॐ ह्रीं अहं णमो अभियसवीण." -भः कः य० ४४ । ५. "ॐ ह्रीं अहं णमो अक्खीण माणसाणं भ० क० य० ४५ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001388
Book TitleMahabandho Part 1
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages520
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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