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________________ महाबंधे णमो सव्वसिद्धायदणाणं' ॥ ४३ ॥ अर्थ–सम्पूर्ण सिद्धायतनों अर्थात् निर्वाणक्षेत्रोंको नमस्कार हो । णमो वड्ढमाणबुद्धरिसिस्स ॥ ४४ ॥ अर्थ-वर्धमान बुद्ध ऋषिको नमस्कार हो । [प्रकृतिसमुत्कीर्तननिरूपणा ] [इस महाबन्ध अथवा महाधवल शास्त्रका प्रारम्भिक ताड़पत्र नं० २७११ नष्ट हो गया है उसकी उसी रूप में पूर्ति होना असम्भव है। आगेके वर्णनक्रमके साथ सम्बन्ध मिलानेकी दृष्टिसे मतिज्ञानावरण, श्रुतज्ञानावरण तथा अवधिज्ञानावरणका संक्षेपमें वर्णन करते हैं, कारण ग्रन्थमें ज्ञानावरणपर आरम्भमें प्रकाश डाला गया है।] जो त्रिकालवर्ती द्रव्य, गुण, पर्यायोंको नाना भेदोसहित प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूपसे जानता है, उसे ज्ञान कहते हैं। उस ज्ञानका आवरण करनेवाला ज्ञानावरण कर्म है। यह ज्ञान जीवका स्वभाव है। इसके द्वारा जीव स्व तथा अपूर्व वस्तुका व्यवसाय निश्चय करता है । वस्तु सामान्य तथा विशेष धर्मोसे समन्वित है । साकार उपयोग ज्ञान तथा निराकार उपयोग दर्शन कहलाते हैं। ज्ञान तथा दर्शन जीवके पृथक्-पृथक् गुण हैं। चित्-प्रकाशकी बहिर्मुख वृत्तिको भी ज्ञान कहते हैं और चित-प्रकाशकी अन्तर्मुख वृत्तिको दर्शन कहते हैं । गोम्मटसार'जीवकाण्डमें लिखा है-सामान्य विशेषात्मक पदार्थोके भेदको ग्रहण न करके जो सामान्यग्रहण-स्वरूपमात्रका अवभासन है, वह दर्शन है (४८२ गाथा)। इस दर्शनका आवरण करनेवाला कर्म दर्शनावरण है। जिसके उदयसे देवादि गति योंमें शारीरिक तथा मानसिक सुखकी प्राप्ति होती है, उसे माता कहते हैं, उसको जो भोगवावे तथा जिससे साताका वेदन करना, भोगना होता है, वह सातावेदनीय है । जिसके उदयका फल अनेक प्रकारके दुःख हैं, वह असाता है । जो उसे भोगवावे-अनुभवन करावे, वह असातावेदनीय है । जो जीवको मोहित करे, वह मोहनीय कर्म है। भव धारण करने में कारण आयु कर्म है । इस जीवकी नर-नारकादि विविध पर्यायोंमें कारण नाम कर्म है। कुलपरम्परासे प्राप्त जीवके उच्च अथवा नीच आचरणका कारण गोत्रकर्म है । इस जीवके दान, लाभ, भोग, उपभोग तथा वीर्य (शक्ति) में जो अन्तराय-बाधा डालता है, वह अन्तराय कर्म है । इन आठ कर्मों में ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोह तथा अन्तरायको घातिया कर्म कहते हैं, कारण ये जीवके अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त सुख तथा अनन्त वीर्य नामक गुणोंका १. "सिद्धानां मक्तात्मनामायतनानि निर्वाणस्थानानि तेषां नमः"-प्रतिक्रमणग्रन्थत्रयी.पृ.१५ । २. "ॐ ह्रीं अहं णमो वड्ढमाणाणं...."-भ० क० य०४६। “ॐ ह्रीं अर्ह णमो सवमाहूर्ण महति महावीर. व ढमाण बुद्धिरिसीणं...."-भ० क० य०४८। "बुद्धश्च स्वहेयोपादेयविवेकसंपन्न:, ऋषिश्च प्रत्यक्षवेदी' प्र० ग्रन्थत्रयी पृ०१५। ३. "जाणइ तिकालविसए दब्वगुणे पज्जए य बहुभेदे । पच्चक्खं च परोवखं अणेग णाणे त्ति णं वेति ॥"-गो० जी०,गा०२६८। ४. 'साकारं ज्ञानमनाकारं दर्शनम्'-त. रा०पृ०६६। ५. "अन्तर्वहिमखयोश्चित्प्रकाशयोदर्शनज्ञानगपदेशभाजोरेकत्व विरोधात्"-ध० टी०, भा०१, पृ०१४५ । ६. 'यदुदयात् देवादिगति शारीरमानससुखप्राप्ति: तत्सातम् । तद्वेदयति वेद्यते इति नातवंदनीयम् । यदुदयफलं. दुःखमने कविधं तदसातम्, द्वेदयति वेद्यते, इत्यसातवेदनीयमिति- गो० क.,टीका पृ०२७ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001388
Book TitleMahabandho Part 1
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages520
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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