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पयडिबंधाहियारो
घात करते हैं । ज्ञान, दर्शन, सुख और वीर्य जीवके अनुजीवी गुण हैं । सिद्धोंके अव्याबाध सुखका घात आठों ही कर्म करते हैं । प्रत्येक कर्मका कार्य जीवके विशेष गुणके घात करनेका है, किन्तु उन सबका सामान्य धर्म जीवके सुख गुणके भी विनाश करनेका पाया जाता है।
वेदनीय, आयु, नाम तथा गोत्र ये प्रतिजीवी गुणोंका नाश करते है। अनुजीवी गुणोंका घात न करने के कारण इनको अघातिया कर्म कहते हैं। ये क्रमशः अव्याबाध, अवगाहन सूक्ष्मत्व तथा अगुरुलघुत्व गुणोंका नाश करते हैं। चार घातियाका नाश करनेवाले अरहन्त भगवान में गुणचतुष्टयकी अभिव्यक्ति होती है तथा सिद्धोंमें कर्माष्टकके ध्वंस करनेसे आठ गुण व्यक्त होते हैं। कर्मों के ध्वंसका अर्थ पुगलका अत्यन्त क्षय नहीं है, कारण सत्का अत्यन्त विनाश नहीं हो सकता। पुद्गलकी कर्मत्वपर्यायका नष्ट हो जाना अर्थात् आत्माके साथ उसका सम्बन्ध न रहना ही कर्मक्षय है।
____ ज्ञानावरण कर्मकी पाँच प्रकृतियाँ हैं-आभिनिबोधिकज्ञानावरण, श्रुतज्ञानावरण, अवधिज्ञानावरण, मनःपर्ययज्ञानावरण और केवलज्ञानावरण। ये आवरणपंचक आभिनिबोधिकज्ञान-श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनापर्ययज्ञान तथा केवलज्ञानरूप ज्ञानकी पाँच अवस्थाओंको आवृत करते हैं। मिथ्यात्व के उदयसे आभिनिबोधिकज्ञान, श्रुतज्ञान तथा अवधिज्ञानको मत्यज्ञान, श्रुताज्ञान तथा विभंगज्ञान कहते हैं। इन तीन ज्ञानोंको कुज्ञान भी कहते हैं।
इन्द्रिय तथा मनकी सहायतासे अभिमुख तथा प्रतिनियत पदार्थको जाननेवाला आभिनिबोधिक या मतिज्ञान कहलाता है। मतिज्ञान-द्वारा गृहीत अर्थसे जो अर्थान्तरका बोध होता है.
ह, उसे श्रुतज्ञान कहते है। द्रव्य, क्षेत्र, काल तथा भावकी अपेक्षा जिस प्रत्यक्ष ज्ञानके विषयकी अवधि या सीमा हो, उसे अवधिज्ञान या सीमाज्ञान कहते हैं। परकीय मनमें स्थित पदार्थको जो ज्ञान जानता है, उसे मनःपर्ययज्ञान कहते हैं। त्रिकालगोचर सर्वद्रव्यों तथा उनकी समस्त पर्यायोंको ग्रहण करनेवाला केवलज्ञान है ।
[आभिनिबोधिकज्ञानावरणप्ररूपणा] जो आभिनिबोधिक ज्ञानावरण कर्म है, वह चार, चौबीस, अट्ठाईस तथा बत्तीस प्रकारका है । अवग्रह, ईहा, अवाय तथा धारणाका आवरण करनेवाला अवग्रहावरण, ईहावरण, अवायावरण तथा धारणावरण कर्म है। विषय और विषयीके सन्निपात के अनन्तर पदार्थका आद्य ग्रहण अवग्रह है। इसका आवरण करनेवाला अवग्रहावरण कर्म है। अवग्रहके द्वारा गृहीत अर्थक विषयमें विशेष जाननेकी इच्छाके बाद भवितव्यता प्रत्ययरूप ज्ञानको ईहा कहते हैं । उसका आवारक कर्म ईहावरण कर्म है । इसके अनन्तर भाषा, वेष आदिका विशेष ज्ञान होनेसे जो संशयादिका निराकरण करके निर्णयरूप ज्ञान होता है, वह अवाय है । उसका आवारक अवायावरण कर्म है। अवायज्ञानके विषयभूत पदार्थके कालान्तरमें स्मरणका कारण धारणाज्ञान है, उसका आवारक धारणावरण
१. "कर्माएक विपक्षि स्यात् सुखस्यक गुणस्य च । अस्ति किंचिन्न कमक तद्विपक्षं तत: पृथक् ।। -पञ्चाध्यायी २।११५। २. "मणेमलादेवित्तिः क्षयः । सतोऽत्यन्तविनाशानुपपत्तेः । ताद्गात्मनोऽपि कर्मणो निवृत्तौ परिशुद्धिः ।'-अष्टसह. पृ०५३। ३. "तदिन्द्रियानिन्द्रियनिमित्तम्"-त० सू० १३१४ । ४. “अत्थादो अयंत रमुवलंभं तं भणंति सुदणाणं । आभिणिबोहियपुष्वं णियमेणिह सद्दजं पहुमं ॥"-गो० जी०,३१४। ५. 'अवह। यदि ति ओही सीमाणात्ति वणियं समये। भवगुणपच्चयविहियं जमोहिणाणे त्ति णं वेति ॥"-गो०जी०,३६६ ।
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