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________________ २२ महाबंध अवग्रहावरण कर्मके अर्थावग्रहावरण तथा व्यंजनावग्रहावरण कर्म ये दो भेद हैं । अव्यक्त पदार्थका ग्रहण करना व्यंजनावग्रह है । यह इन्द्रियोंसे सम्बद्ध अर्थका होता है । इसके विपरीत स्वरूपवाला अर्थावग्रह है । व्यंजनावग्रहका आवारक व्यंजनावग्रहावरण कर्म है तथा अर्थावग्रहका आवारक अर्थावग्रहावरण कर्म है । व्यंजनावग्रह चक्षु तथा मनको छोड़कर शेष स्पर्शन, रसना, घ्राण तथा श्रोत्र इन्द्रियसे होता है । अतएव इसके स्पर्शनेन्द्रियव्यंजनावग्रहावरण कर्म, रसनेन्द्रियव्यंजनावग्रहावरण कर्म, घ्राणेन्द्रियव्यंजनावग्रहावरण कर्म तथा श्रोत्रेन्द्रियव्यंजनावग्रहावरण कर्म ये चार भेद होते हैं । अर्थावग्रह व्यक्त वस्तुका ग्राहक होनेके कारण पाँच इन्द्रिय तथा मनके द्वारा होता है । इस कारण उसके आवारक स्पर्शन, रसना, प्राण, चक्षु तथा श्रोत्रेन्द्रियावरण कर्म और नोइन्द्रियावरण कर्म हैं । ईहा, अवाय तथा धारणा ज्ञान भी पाँच इन्द्रिय तथा मनसे होनेके कारण अर्थावग्रह के समान प्रत्येक छह-छह भेदवाला है । इस कारण व्यंजनावग्रहके चार भेदोंमें अर्थावग्रहादिके चौबीस भेदोंको मिलानेसे २८ भेद होते हैं । अतएव मतिज्ञानावरण कर्मके भी २८ भेद हो जाते हैं। इसके बहु, एके, बहुविध, एकविध, क्षिप्र, अक्षिम, उक्त, अनुक्त, ध्रुव, अध्रुव, निःसृत, अनिःसृत - इन बारह प्रकारके पदार्थोंको विषय करनेके कारण प्रत्येकके द्वादश भेद हो जाते हैं। इस प्रकार २८x१२ = ३३६ भेद मतिज्ञानके हैं। अतएव मतिज्ञानावरण कर्मके भी ३३६ भेद होते हैं । [ श्रुतज्ञानावरणप्ररूपणा ] मतिज्ञानके द्वारा जाने गये पदार्थ से पदार्थान्तरका ग्रहण करना श्रुतज्ञान है । वह 'नित्य शब्दनिमित्त है अथवा अन्य-निमित्तक है' ऐसी शंकाका निराकरण के लिए उस श्रुतज्ञानको मतिपूर्वक कहा है । यद्यपि श्रुतज्ञानपूर्वक भी श्रुतज्ञान होता है, फिर भी श्रुतज्ञानके मतिपूर्वकत्वमें बाधा नहीं आती है। श्रुतज्ञान मतिपूर्वक होता है, इसका तात्पर्य इतना है कि प्रत्येक श्रुतज्ञानके प्रारम्भ में मतिज्ञान निमित्त हुआ करता है । पश्चात् मतिपूर्वकत्वका कोई नियम नहीं है। उस श्रुतज्ञानके शब्दजन्य तथा लिंगजन्य ये दो भेद कहे गये हैं । अक्षरात्मक तथा अनक्षरात्मक रूपसे भी उसके दो भेद कहे जाते हैं । श्रुतज्ञानको अक्षरात्मक या शब्दात्मक मानना उपचरित कथन है । 'श्रुतज्ञानका कारण प्रवचन है, इससे प्रवचनको भी श्रुतज्ञान कह दिया है । अनक्षरात्मक श्रुतज्ञानके असंख्यात भेद हैं । अपुनरुक्त अक्षरात्मक श्रुतज्ञान के संख्यात भेद हैं । पुनरुक्त अक्षरात्मक श्रुतज्ञानका प्रमाण इससे कुछ अधिक है । ३३ व्यंजन, २७ स्त्रर तथा ४ अयोगवाह मिलकर कुल चौसठ मूलवर्ण होते हैं। इन चौसठ वर्णों के संयोग १८४४६७४४०७३७०६५५१६१५ इन बीस अंक प्रमाण अपुनरुक्त अक्षर होते हैं । उपर्युक्त अक्षरोंमें १६३४८३०७८८८ इन एकादश अंकप्रमाण अक्षरात्मक मध्यम पदका भाग देनेपर लब्धिरूपमें प्राप्त संख्या प्रमाण अंगप्रविष्ट पद होते हैं जो द्वादशांग आचारांगादिके नामसे ख्यात हैं । १. " श्रुतज्ञानस्य कारणं हि प्रवचनं श्रुतमित्युपचर्यते । मुख्यस्य श्रुतज्ञानस्य भेदप्रतिपादनं कथमुपपन्नम् ? तज्ज्ञानस्य भेदप्रभेदरूपत्वोपपत्तेः । द्विभेदप्रवचनजनितं हि ज्ञानं द्विभेदम् । अङ्गबाह्यप्रवचनजनितस्य ज्ञानस्याङ्गजात्वात् अङ्गप्रविष्टजनितज्ञानस्याङ्गप्रविष्टत्वात् । त० इलो० पृ० २३६ । "तत्य अंगबाहिरस्स चोट्स अत्याहियारा, अंगपविट्ठ अत्याधियारो बारसविहो ।" ध० टी० भाग १, ५० ६६ | Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001388
Book TitleMahabandho Part 1
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages520
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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