________________
पयडिबंधाहियारो
बुद्धिके अ
भाग देनेसे शेष बचे हुए अक्षरोंको अंगबाह्य कहते हैं। अंगबाह्य के सामायिक, चतुर्विशतिस्तव, वन्दना, प्रतिक्रमण, वैनयिक, कृतिकर्म, दशवैकालिक, उत्तराध्ययन, कल्पव्यवहार, कल्प्याकल्प्य, महाकल्प्य, पुण्डरीक, महापुण्डरीक तथा निषिद्धिका ये चौदह प्रकार हैं।
अतिशय तथा ऋद्धिविशिष्ट गणधरदेवके द्वारा अनुस्मृत जो द्वादशांगरूप जिनवाणीकी प्रन्थरचना है, वह अंगप्रविष्ट है। आचार्य अकलंकदेव उन गणधरदेवके शिष्य-प्रशिष्योंके द्वारा आरातीय आचार्योंके पाससे श्रुतज्ञानके तत्त्वको ग्रहण करके कालदोपसे अल्पमेधा, अल्पबल तथा अल्प आयुयुक्त प्राणियोंके अनुग्रह के लिए उपनिबद्ध संक्षिप्तरूपसे अंगोंके अर्थरूप वचनविन्यासको अंगबाह्य कहते हैं । इस दृष्टिसे आचार्यपरम्परासे प्राप्त तथा जिनवाणीके तत्त्वका प्रतिपादन करनेवाले अन्य ग्रन्थान्तर अंगबाह्य श्रुतमें समाविष्ट होते हैं।
अनक्षरात्मक श्रुतज्ञानका सबसे छोटा रूप पर्यायज्ञान कहलाता है। उससे कम ज्ञान किसी भी जीवके नहीं पाया जा सकता है। उस ज्ञानको नित्य प्रकाशमान तथा निरावरण कहा है। सूक्ष्म निगोदिया लब्ध्यपर्याप्तक जीव अपने योग्य सम्भवनीय ६०१२ भवोंमें परिभ्रमण कर अन्तके अपर्याप्तक शरीरको तीन मोड़ाओंसहित जब ग्रहण करता है, तब उसके प्रथम मोड़ाके समयमें सर्व जघन्य ज्ञान होता है।
'इस पर्यायज्ञानसे आगे पर्याय-समास, अक्षर, अक्षर-समास, पद, पद-समास, संघात, संघात-समास, प्रतिपत्तिक, प्रतिपत्तिक-समास, अनुयोग, अनुयोग-समास, प्राभृत, प्राभृतसमास, प्राभृत-प्राभृत, प्राभृत-प्राभृत-समास, वस्तु, वस्तु-समास, पूर्व, पूर्व-समास भेद होते हैं।
"श्रुतज्ञानका विषयभूत अर्थ मनका विषय होता है। श्रुतज्ञानमें मानसिक व्यापार होता है। ऐसी स्थिति में जिनके मन नहीं है, उन असंज्ञी पंचेन्द्रिय पर्यन्त जीवोंके श्रुतज्ञानका अभाव समझा जाना चाहिए था, किन्तु परमागममें कमसे-कम छद्मस्थोंके मति तथा श्रुत ये दो ज्ञान नियमतः कहे गये हैं । श्रुतज्ञानावरण कर्मका क्षयोपशम होनेसे एकेन्द्रियादिके मन न होते हुए भी श्रुतज्ञानका सद्भाव आगममें वर्णित है । इसका कारण यह है कि असंज्ञी जीवोंमें जो कुछ ऐसी क्रियाएँ पायी जाती हैं, जिनसे उनके मनके सद्भावको कल्पना होने लगती है उनका कारण मन नहीं है, किन्तु श्लोकवार्तिककार विद्यानन्दी स्वामीके शब्दों में मतिसामान्यके समान स्मृतिसामान्य, धारणासामान्य तथा उनके निमित्तरूप अवायसामान्य, ईहासामान्य, अवग्रहसामान्य पाये जाते हैं, जो कि अनादिभवाभ्यासके कारण उत्पन्न होते हैं। उनके क्षयोपशमनिमित्त भावमन नहीं है, कारण वह प्रति नियत संज्ञी प्राणियोंके होता है। इसका भाव यह है कि पिपीलिका आदिमें योग्य आहारका ग्रहण, अनुसन्धान, अयोग्य
१. "तत्राङ्गप्रविष्टमङ्गबाह्य चेति द्विविधमङ्गप्रविष्टमाचारादिद्वादशभेदम, बुद्धयतिशयर्यादयुक्तगणधरानुस्मतग्रस्थरचनम् । आरातीयाचार्यकृताङ्गार्थ-प्रत्यासन्नरूपमङ्गबाह्यम् । तद्गणधरशिष्यैः प्रशिष्यरारातोयैरधिगतश्रुतार्थतत्त्वैः कालदोषादल्पमेधायुर्बलानां प्राणिनामनुग्रहार्थमुपनिबद्धं संक्षिप्ताङ्गार्थवचनविन्यासं तदङ्गबाह्यम् । -त०रा०पृ०५४ । २. "सुहमणिगोदअपज्जत्तयस्स जादस्स पढमसमयम्हि । हवदि हु सव्वजहण्णं णिच्चुग्घाडं णिरावरणं ॥ ३१९ ।। सुहमणिगोदअपज्जत्तगेमु सगसंभवेसु भमिऊण । चरिमापुण्णतिवक्काणादिमवक्कट्टियेव हने ॥३२०॥"-गो० जी०। ३. "पज्जायक्खरपदसंघादं पडियत्तियाणिजोगं च । दुग्वारपाहडं च य पाहडयं पत्थु पुर्व च ॥ तेसि च समासेहि य बीसविहं वा हु होदि सुदणाणं । आवरणस्स वि भेदा तत्तियमेत्ता हवंति त्ति ॥"-गो० जी०३१६,१७। ४. "श्रुतज्ञानविषयोऽर्थः श्रुतम् । स विषयोऽनिन्द्रियस्य । अथवा श्रतज्ञानं श्रुतम् । तदनिन्द्रियस्यार्थः प्रयोजनमिति यावत् ।"-स० सि०,पृ० १०५ ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org