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महा
का परिहार आदि बातें पायी जाती हैं, उसका कारण मन न होकर स्मृतिसामान्य धारणासामान्य, ईहासामान्य, अवायसामान्य आदि हैं ।'
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यहाँ श्रुतज्ञानकी प्ररूपणा की गयी है। इससे श्रुतज्ञानावरण कर्मकी प्ररूपणा कैसे हों जायेगी ? इसके समाधानमें वीरसेनाचार्य लिखते हैं - यह दोष नहीं है, आवरण किये जानेवाले ज्ञानके स्वरूपकी प्ररूपणाका ज्ञानावरणके स्वरूप परिज्ञानके साथ अविनाभाव है । इस अविनाभाव के कारण श्रुतज्ञानके स्वरूपनिरूपण-द्वारा श्रुतज्ञानावरणका परिज्ञान कराया गया है ।
इस प्रकार श्रुतज्ञानावरणकी प्ररूपणा हुई ।
[ अवधिज्ञानावरणप्ररूपणा ]
जो अवधिज्ञानावरणीय कर्म है, वह एक प्रकारका है। उसकी दो प्रकारकी प्ररूपणा है । एक भवप्रत्यय अवधिज्ञान, दूसरा गुणप्रत्यय अवधिज्ञान । अवधिज्ञान सीमाज्ञान भी कहा जाता है, कारण यह द्रव्य, क्षेत्र, काल तथा भावकी मर्यादासे रूपी पदार्थको विषय करता है । भवप्रत्यय अवधिज्ञान में भव निमित्त है । उस भवमें नियमसे क्षयोपशम होता ही है । जैसे पक्षियोंकी पर्याय में उत्पन्न होनेवाले जीवके गगन-गमन विषयक क्षयोपशम पाया जाता है । इसी प्रकार देव तथा नारकियोंकी पर्यायमें जानेवाले सम्पूर्ण जीवधारियोंको नियमसे अवधिज्ञान उत्पन्न हो जाता है। तीर्थंकर भगवान् के भी जन्मसे जो अवधिज्ञान होता है, उसे भवप्रत्यय कहा है ।
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सम्यग्दर्शनादि निमित्तोंके सन्निधान होते हुए शान्त तथा क्षीण कर्मवालोंके जो अवधिज्ञान होता है, उसे क्षयोपशमनिमित्तक या गुणप्रत्यय अवधि कहते हैं । यह जीवके विशेष प्रयत्नपर अवलम्बित रहता है, भवमात्र इसमें कारण नहीं है । गुण या क्षयोपशम निमित्त होनेसे इसे क्षयोपशमनिमित्तक कहते हैं ।
१. “न चामनस्कानां स्मरणसामान्याभावोऽनादिभवसंभूतविषयानुभवोद्भवायाः सामान्यधारणायातस्द्धेतोः सद्भावात् आहारसंज्ञासिद्धेः प्रवृत्तिविशेषोपलब्धेः ततो नाममतिवदाहारादिसंज्ञातद्धेतुश्च स्मृतिसामान्यं धारणा सामान्यं च तन्निमित्तपत्रासामान्य मोहासामान्यमवग्रहसामान्यं च सर्वप्राणिसाधारणमनादिभवाभ्यास संभूतमभ्युपगन्तव्यम्, न पुनः क्षयोपशमनिमित्तं भावमनः, तस्य प्रतिनियतप्राणिविषयतयानुभूयमानत्वात् ।।" - त० इलो० पृ० ३२६,३३० । २. सुदणाणस्स एयट्ट परूवणा भणिस्समाणा कथं सुदणाणावरणीयस्स कम्मस्स परूवणा होज्ज ? ण एस दोसो, आवरणिज्जस रूवपरूवणाए तदावरणसरूवावगमाविणाभावितादो ।" - ध० टी०, प० १२५५ । ३. "ययाकाशे सति पक्षिणो गतिर्भवति तथा ज्ञानावरणक्षयोपशमेऽन्तरंगे हेतौ सत्यवधेर्भावः, भवस्तु बाह्य हेतुः । कथं पुनर्भवो हेतुः ? इति चेत्; व्रतनियमाद्यभावात् । यथा तिरश्चां मनुष्याणां चाहिंसादिव्रतनियमहेतुकोऽवधिर्न तथा देवानां नारकाणां चाहिंसा दिव नियमाभिसंधिरस्ति । कुतो भवं प्रतीत्य कर्मोदास्य तथाभावात् । तस्मात् तत्र भत्र एवं बाह्यसाधनमुच्यते । " - त०रा०, पृ० ५४,५५ । "यथोक्तसम्यग्दर्शनादिनिमित्तसन्निधाने सति शान्तक्षीणकर्मणां तस्य उपलब्धिर्भवति ।" -त०रा०, पृ० ५६ । ४. "मोहिस्स य अवरं णरतिरिये होदि संजदम्हि वरं । परमोही सत्रोही चरमसरीरस्स विरदस्स ।' पडिवादी सोही अपवादी हवंति सेसाओ । मिच्छत्तं अविरमणं ण य पडिवज्जति चरिमदुगे । दव्वं खेत्तं कालं भावं पsिह विजाण ओही । अवरादुक्कसोत्ति य वियप्पर हिदो दु सन्वोही ।" गो० जी० ३७३-७५ ।
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