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________________ पय डिबंधाहियारो ...........[ अत्र सप्तविंशतितमं ताडपत्रं त्रुटिनम् ] ......... १. अयणं-संवच्छर-पलिदोपम-सागरोपमादया वि भवंति । ओगाहणा जहण्णा णियमा दु सुहुमणियोदजीवस्स । यद्देहो तद्देही जहण्हयं खेत्तदो ओधी ॥१॥ अवधिज्ञानके देशावधि, परमावधि तथा सर्वावधि रूपसे तीन भेद भी हैं । भवप्रत्यय अवधिज्ञान देशावधिके जघन्य भेदरूप होता है। गुणप्रत्यय तीनों भेदरूप होता है। गुणप्रत्यय देशावधिका जघन्य असंयमी मनुष्य, तिर्यंचोंके पाया जा सकता है। इसके आगेके विकल्प संयमी मनुष्यके ही पाये जाते हैं। परमावधि, सर्वावधि चरमशरीरी मुनिराजके ही पाया जाता है । सर्वावधि जघन्य, मध्यम, उत्कृष्ट आदि भेदोंसे रहित है । 'सम्यक्त्वरहित अवधिज्ञानको विभंगावधि कहते हैं । अवधिज्ञानत्वको अपेक्षा दोनों में विशेष अन्तर नहीं है । सम्यक्त्व, मिथ्यात्वके सहचारवश उनमें नाममात्रका भेद है। कालकी अपेक्षा अवधिज्ञानके समय, आवली, क्षण, लव, मुहूर्त, दिवस, पक्ष, ऋतु, अयन, संवत्सर, युग (पंचवर्ष), पूर्व (सत्तरकोटि छप्पनलक्ष, सहस्र कोटि वर्षे), पर्व (चौरासी लाख पूर्व प्रमाण), पल्योपम, सागरोपम आदि विधान जानना चाहिए। महाबन्धके त्रुटित पत्रमें जो प्रथम पंक्ति है उसमें लिखा है-'अयन, संवत्सर, पश्योपम, सागरोपम आदि होते हैं।' धवला टीकाके प्रकरणसे तुलना करनेपर ज्ञात होता है कि यहाँ अवधिज्ञानसम्बन्धी कालका निरूपण चल रहा है। १.... अयन,संवत्सर,पल्योपम,सागरोपम आदि होते हैं । अवधिज्ञान के क्षेत्रकी प्ररूपणा करने के लिए उत्तर सूत्र कहते हैं-सूक्ष्मलमध्यपर्याप्तक निगोदिया जीवकी जघन्य अवगाहना है । जघन्य अवधिज्ञानका क्षेत्र उसके शरीरप्रमाण है। विशेषार्थ-सूक्ष्म लब्ध्यपर्याप्तक निगोदिया जीवके ऋजुगतिसे उत्पन्न होनेके तीसरे समयमें घनांगुलके असंख्यातवें भाग प्रमाण सर्वजघन्य अवगाहना होती है। उस समय निगोदियाकी शरीराकृति वर्तुलाकार होनेसे सबसे कम क्षेत्रफल रहता है। उतना जघन्यावधिका क्षेत्र है। १. "दोण्णं पि ओहिणाणतं पडि भेदाभावादो। ण च सम्मत्त-मिच्छत्तसहचारेण कदणामभेदादो भेदो अत्थि अइप्पसंगादो।......'कालदो ताव समयावलियखण-लब-महत्त-दिवस-पक्ख-मास-उद्- 'अवण-संवच्छर-- जुग-पुव्व-पलिदोवम-सागरोवमादओ विधओ णादव्या भवंति।" -ध० टी०प० १२५८ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001388
Book TitleMahabandho Part 1
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages520
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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