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महाबंध
'अंगुलमावलियाए भागमसंखेज्जदो वि संखेज्जा | अंगुलमावलियंतो आवलियं अंगुलपुत्तं ॥ २ ॥ आवलियधत्तं पुण हत्थोवथा (हत्थं तह) गाउदं मुहुत्तो । जोजण भिण्णमुहुत्तं दिवसंतो पण्णुवीसं तु ॥ ३ ॥ "भरदं च अद्धमासं साधियमासं [च] जंबुदीवं हि । वासं च मणुसलोगे वासपुधत्तं च रुजगंहि ॥ ४ ॥ "संखेज्जदिमे कालं दीवसमुद्दा हवंति संखेज्जा | कालं हि असंखेज्जो दीवसमुद्दा हवंति असंखेज्जा ||५|| तेजाकम्म सरीरं तेजादव्वं च भासदव्वं च (भासमणदव्वं ) । बोद्धव्वं असंखेज्जा दि( दी ) व समुदा (द्दा ) य वासाय || ६ ||
अब क्षेत्र तथा कालकी अपेक्षा अवधिज्ञानसम्बन्धी १९ काण्डकोंका निरूपण करते हैं। प्रथम काण्डक में अंगुलका असंख्यातवाँ भाग जघन्य क्षेत्र है । आवलीका असंख्यातवाँ भाग जघन्य काल है । अंगुलका संख्यातवाँ भाग उत्कृष्ट क्षेत्र है, आवलीका संख्यातवाँ भाग उत्कृष्ट काल है । दूसरे काण्डकमें घनांगुलप्रमाण क्षेत्र है, कुछ कम आवलीप्रमाण काल है ।
विशेषार्थ - यहाँ दूसरे, तीसरे आदि काण्डकों में उत्कृष्टकी अपेक्षा वर्णन किया गया है। तीसरे काण्डक में अंगुलपृथक्त्व क्षेत्र है, आवली पृथकत्वप्रमाण काल है || २ ||
चतुर्थ काण्डक में आवली पृथक्त्व काल है, हस्तप्रमाण क्षेत्र है । पंचम काण्डकमें अन्तमुहूर्त काल है, एक कोश क्षेत्र है । छठेमें भिन्न मुहूर्त ( एक समय कम मुहूर्त ) काल है । एक योजन क्षेत्र है । सप्तम में कुछ कम एक दिन काल है, २५ योजन क्षेत्र है || ३ ||
अष्टम में अर्धमास काल है, भारतवर्ष क्षेत्र है । नवममें साधिक मास काल है, जम्बूद्वीप क्षेत्र है । दशममें वर्षप्रमाण काल है, मनुष्य लोकप्रमाण क्षेत्र है । ग्यारहवें में वर्षपृथकत्व काल है, रुचक द्वीप क्षेत्र है || ४ ||
बारहवेंमें संख्यात वर्ष काल है, संख्यात द्वीप समुद्र क्षेत्र है । तेरहवें में असंख्यात वर्ष काल है, असंख्यात द्वीप समुद्रप्रमाण क्षेत्र है ॥ ५ ॥
विशेष, आगामी पंच काण्डकोंका द्रव्यकी अपेक्षा कथन है ।
चौदहवें में देशावधिके मध्यम विकल्परूप विस्रसोपचयसहित तैजस शरीररूप द्रव्य विषय है । पन्द्रहवें में विस्रसोपचयसहित कार्मण शरीर स्कन्ध विषय है । सोलहवें में विस्रसोपचयरहित केवल तेजोवर्गणा विषय है । सत्रहवें में विस्रसोपचयरहित केवल भाषावर्गणा विषय है । अठारहवें में विस्रसोपचयरहित केवल मनोवर्गणा विषय है ।
१. गो० जी०, गा०, ४०३ । २. " सूक्ष्मनिगोदस्य लब्ध्यपर्याप्तकस्य जातस्य, ऋजुगत्या उत्पन्नस्य, उत्तृतीयसमये वर्तमानस्य जीवस्य घनाङ्गुला संख्येय भागमात्रं सर्वजघन्यमवगाहनं भवति" गो०जी०, गाथा ६४, संस्कृत टीका, पृ० २१५ । ३. " आवलियपुधत्तं पुण हत्थं तह -गो० जी०, गा० ४० । ४. “भरहम्मि अद्धमासं साहियमासं च जंबुदोवम्मि" गो० जी०, गा० ४०५ । ५. "संखेज्जरमे वासे दीवसमुद्दा.. वासम्मि असंखेज्जे''''''-गो० जी०, गा०,४०६ ।
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