________________
पर्याडबंधाहियारो
'कालो (काले) चदुणं बुड्डी कालो भजिदव्वे खेत्तवुड्डीए । उड्डीयं दव्वपज्जयं भजिदव्वं खेत्तकालो य ॥७॥ परमोधिमसंखेज्जा लोगामेत्ताणि समय-कालो दु । रूवगदं लभदि दव्यं खेत्तोवममगणि जीवेहिं ॥ ८ ॥ पणुवी जोण ( ) णाणं ओधी वेंतरकुमारवग्गाणं | संखेज्जजोजणाणं जोदिसियाणं जहण्होधी | ॥ असुराणामसंखेज्जा जोजणकोडी सेसजोदिसंताणं । खाती ( दी ) दसहस्सा उक्कस्सेणोधिविसे ( स ) यो दु ॥ १० ॥ कीसा पढमं दो चदु विदियं) सणक्कुमार- माहिंदे | तच्चदु ( तदियं तु) बम्हलंतय सुक्कसहस्सारया उत्थी ॥११॥ 'आणदपाणदवासी तथ आरणआरणच्चुदा देवा ।
पसंति पंचमखिदिं छुट्टी गेवेज्जया देवा ॥ १२ ॥
तेरहवें, चौदहवें आदि काण्डकों में असंख्यातगुणित क्षेत्र तथा असंख्यातगुणित काल है । अर्थात् बारहवें काण्डकके काल तथा क्षेत्र से असंख्यातगुणित काल तथा क्षेत्र तेरहवें काण्डक में है । इसी प्रकार आगे जानना चाहिए ||६||
विशेषार्थ - उन्नीसवें काण्डकमें एक समय कम पत्यप्रमाण काल है, सम्पूर्ण लोकाकाश क्षेत्र है ।
कालकी वृद्धि होनेपर द्रव्य, क्षेत्र, काल तथा भावरूप चारों वृद्धियाँ होती हैं। क्षेत्रकी वृद्धि होनेपर कालकी वृद्धि भजनीय है अर्थात् हो भी, न भी हो । द्रव्य और भाव (पर्याय ) की वृद्धि होनेपर क्षेत्र, कालकी वृद्धि भजनीय है ॥७॥
२७
परमावधिका काल एक समय अधिक लोकाकाशके प्रदेशप्रमाण है, क्षेत्र असंख्यात लोकप्रमाण है, जो अग्निकायिक जीवोंकी संख्याप्रमाण है । एक प्रदेशाधिक लोकाकाशप्रमाण इसका द्रव्य है ' ॥८॥
८
व्यन्तरों तथा भवनवासी देवोंमें जघन्य क्षेत्रपच्चीस योजन प्रमाण है, ज्योतिषी देवोंका जघन्य क्षेत्र संख्यात योजन है । असुरकुमारोंका उत्कृष्ट क्षेत्र संख्यात. कोटि योजन है । शेष नव भवनवासी तथा व्यन्तरों- ज्योतिषियोंका उत्कृष्ट क्षेत्र असंख्यात हजार योजन है ॥६- १०॥ सौधर्मद्विकका क्षेत्र प्रथम नरकपर्यन्त हैं । सनत्कुमार, माहेन्द्रका दूसरे नरकपर्यन्त है । ब्रह्म, ब्रह्मोत्तर, लान्तव, कापिष्ठवासियोंका तीसरे नरकपर्यन्त, शुक्र, महाशुक्र, शतार, सहस्रारवाले चौथे नरकपर्यन्त जानते हैं ॥। ११ ॥
आनत, प्राणत, आरण, अच्युत स्वर्गवासी पाँचवें नरक तक, नवग्रैवेयकवासी छठीं पृथ्वीपर्यन्त देखते हैं ॥ १२ ॥
Jain Education International
१. “काले चउण्ण उड्ढो..."-गो० जी०, गा० ४११ । २. यह गाथा १६ वें नम्बरपर भी पायी जाती है । वर्णक्रमकी दृष्टिसे यह १६ वें नम्बरपर विशेष उपयुक्त प्रतीत होती है । ३. गो० जी०, गा० ४२५ । ४. गो० जी० गा० ४३६ । ५. "सक्कीसाणा पढमं विदियं तु सणक्कुमारमाहिंदा । तदियं तु बम्हलांतव..." - गो० जी०, गा० ४२६ । ६. गो० जी०, गा ४३० । ७. त० रा० पृ० ५७ । ८. त०
रा०, पृ० ५७ ।
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org