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________________ महाबंधे सव्वं पि लोगणालिं पसंति अणुत्तरेसु जे देवा । 'संखेते ( सक्खेत्ते ) य सकम्मे रूवगदमणंतभागो य ॥ १३ ॥ तेजासरीरलंभो उक्कस्सेण दु तिरिक्खजोणीणं । गाउदजहण्णमोधी णिरयेसु य जोजणुक्कस्सं ॥ १४ ॥ उक्कस्समणुसे ( स्से ) सु य मणुस ( स्स ) तेरच्छिए जहण्होधी । उकस्सं लोगमेत्तं पडिवादी तेण परमप्पडिवादी ।। १५ ॥ परमोधि असंखेजा लोगामेत्ताणि समय कालो दु । नव अनुदिश तथा पंच अनुत्तर विमानवासी देव सर्व बसनालीको देखते हैं ॥ १३ ॥ विशेषार्थ-सौधर्मादिकके देव अपने विमानकी ध्वजाके दण्डके शिखरपर्यन्त ऊपर जानते हैं। नव अनुदिश तथा पंच अनुत्तर विमानवासी देव अपने विमानके शिखरपर्यन्त ऊपर देखते हैं। नीचे बाह्य तनुवात वलयपर्यन्त सम्पूर्ण त्रसनालीको देखते हैं। अनुदिश विमानवाले कुछ अधिक तेरह राजू प्रमाण तथा अनुत्तर विमानवाले कुछ कम इक्कीस योजनरहित चौदह राजू प्रमाण क्षेत्रको देखते हैं। गाथाके उत्तरार्धमें अवधिके विषयभूत द्रव्यको जाननेका क्रम कहते हैं-अपने-अपने अवधिज्ञानावरण कर्मके द्रव्यमें एक बार ध्रुवहारका भाग देनेपर अपने क्षेत्रके प्रदेश में-से एक-एक प्रदेश कम करते जाना चाहिए और यह कार्य तबतक करते जाना चाहिए, जबतक कि क्षेत्रके प्रदेशोंका प्रमाण घटते-घटते समाप्त न हो जाये । इस प्रकार करनेके अनन्तर जो अनन्तभाग प्रमाण द्रव्य अवशिष्ट रहेगा वहाँ-वहाँ उतना-उतना ही द्रव्यका प्रमाण समझना चाहिए। _ तियंचगतिमें अवधिका उत्कृष्ट द्रव्य तैजस शरीरके द्रव्यप्रमाण है; क्षेत्र भी इतना ही है। अर्थात् तैजस शरीर द्रव्य के परमाणुप्रमाण आकाश प्रदेशोंसे जितने द्वीप, समुद्र व्याप्त किये जायें, उतना है । वह असंख्यात द्वीप समुद्रप्रमाण होता है ।। १४ ।। नरकगति में अवधिका जघन्य क्षेत्र एक कोस, उत्कृष्ट क्षेत्र एक योजन है । उत्कृष्ट देशावधि मनुष्योंमें ही होता है । जघन्य देशावधि मनुष्य, तिथंचों में होता है। उत्कृष्ट देशावधिका क्षेत्र लोकप्रमाण है। यह प्रतिपाती होता है अर्थात् इसके धारकका मिथ्यात्वादि में पतन सम्भव रहता है । परमावधि तथा सर्वावधि अप्रतिपाती होते हैं ॥ १५ ॥ परमावधिका उत्कृष्ट क्षेत्र लोकालोकप्रमाण असंख्यात लोक है। यह अग्निकायिक १. "सक्खेते य सकम्मे .."-गो० जी०, गा० ४३१ । २. "तिरश्चामुत्कृष्टदेशावधिरुच्यते ... तेजशरीरप्रमाणं द्रव्यम् । कियच्च तत् ? असंख्ये यसमुद्राकाशप्रदेशपरिच्छिन्नाभिरसंख्येयाभिस्तेजःशरीर. द्रव्यवगणाभिनिवर्तितं तावदसंख्येयस्कन्धाननन्तप्रदेशान् जानातीत्यर्थः ।"-त०रा०पू०५७। ३. उत्कृष्ट. परमावधेः क्षेत्र सलोकालोकप्रमाणा असंख्येया लोकाः । कियन्तस्ते अग्निजीवतुल्या:""कालः प्रदेशाधिकलोका. काशप्रदेशावधुतप्रमाणा अविभागिनः समयास्ते चासंख्याताः संवत्सराः।" "द्रव्यं प्रदेशाधिक लोकाकाशप्रदेशावधुतप्रमाणम् ।।" त०रा०,पृ०५७। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001388
Book TitleMahabandho Part 1
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages520
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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