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________________ पय डिबंधाहियारो रूवगदं लभदि दव्वं खेत्तोपममगणिजीवेहिं ॥ १६ ॥ एवं ओधिणाणावरणीयस्स कम्मस्स परूवणा कदा भवदि । २. यं तं मणपजवणाणावरणीयं कम्मं बंधतो (कम्म) तं एयविधं । तस्स दुविधा परूवणा-उजमदिणाणं चेव विपुलमदिणाणं चेव । यं तं उमदिणाणं तं तिविधं-उज्जगं मणोगदं जाणदि। उज्जुगं वचिगदं जाणदि । उज्जुगं कायगदं जाणदि। मणेण माणसं पडिविंदइत्ता परेसिं सण्णासदिमदिचिंतादि विजाणदि, जीविदमरणं लाभालाभं जीवोंकी संख्याप्रमाण है। परमावधिका काल समयाधिक लोकाकाशके प्रदेशप्रमाण है यह असंख्यात वर्षे रूप है । इसका द्रव्य प्रदेशाधिक लोकाकाशके प्रदेश प्रमाण है ।। १६॥ विशेष-अवधिज्ञानके जितने भेद कहे गये हैं, उतने ही अवधिज्ञानावरण कर्मके भेद हैं। अवधिज्ञानका अवधिज्ञानावरण कर्मके साथ अविनाभाव सम्बन्ध है। अतः श्रुतज्ञानके समान यहाँ भी अवधिज्ञानके वर्णन-द्वारा अवधिज्ञानावरणीय कर्मका वर्णन हुआ समझना चाहिए। इस प्रकार अवधिज्ञानावरण कर्मकी प्ररूपणा हुई। [ मनःपर्ययज्ञानावरणप्ररूपणा'] २. यह जो मनःपर्ययज्ञानावरणीय कर्म है, वह एक प्रकारका है। उसकी दो प्रकारको प्ररूपणा है । एक ऋजुमतिज्ञान है, दूसरा विपुलमति मनःपर्ययज्ञान है । जो ऋजुमतिज्ञान है, वह तीन प्रकारका है। वह सरल मनोगत पदार्थको जानता है। सरल वचनगत पदार्थको जानता है। सरल कायगत पदार्थको जानता है। यह ऋजुमतिज्ञान मनसे-मतिज्ञानसे अन्य जीवके मनको अथवा मनःस्थित पदार्थको ग्रहण करके मनःपर्ययज्ञानके द्वारा अन्यकी संज्ञा ( प्रत्यभिज्ञान ) स्मृति, मति, चिन्तादिको जानता है। विशेषार्थ-मनसे अर्थात् मति ज्ञानसे मानसिक पदार्थको पर्यय-ग्रहण करना मनःपर्ययज्ञान है। मति ज्ञान मनःपर्ययमें अवलम्बनमात्र है, कारणरूप नहीं है। जैसे आकाशमें स्थित चन्द्रदर्शनके लिए वृक्ष की शाखादिकी सीधका अवलम्बनमात्र लिया जाता है, चन्द्रदर्शनमें कारण नेत्रकी शक्ति है। इसी प्रकार मनोगतादि भावोंका परिज्ञान करने में मनःपर्ययज्ञानावरण कर्मका क्षयोपशम कारण है । मन अथवा मतिज्ञान अवलम्बनमात्र हैं । विपुलमति मनःपर्ययज्ञान मनके द्वारा अचिन्तित अथवा अर्धचिन्तित पदार्थको भी ग्रहण करता है। १. "परूवणा णाम किं उत्तं होदि ? ओघादेसेहि गुणेसु जीवसमासेसु पज्जत्तीसु पाणेसु सणासु गदीसु इंदिएसु काएसु जोगेसु वेदेसु कसाएसु णाणेसु संजमेसु दंसणेसु लेस्सासु भविएसु अभविए सु सम्मत्तेसु सणि असण्णोसु आहारि-अणाहारीसु उवजोगेसु च पज्जत्तापज्जतविससणेहि विसेसिऊण जा जोव-परिक्खा सा पक्षणा णाम ।"-ध०टी०भा०२.पृ०४१२। २. “यथाऽभ्रे चन्द्रमसं पश्येति अभ्रमपेक्षाकारणमात्र भवति, न च चक्षुरादिवनिर्वर्तकं चन्द्रज्ञानस्य । तथाऽन्यदीयमनोऽप्यपेक्षाकारणमात्रं भवति । परकीयमनसि व्यवस्थितमर्थ जानाति मनःपर्ययः । ततो नास्य तदायत्तः प्रभव इति न मतिज्ञानप्रसंगः।"-त०रा०,पृ०५८। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001388
Book TitleMahabandho Part 1
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages520
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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