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________________ २४८ महाबंधे सव्वलोगो । अबंधगा णत्थि । थीणगिद्धि०३ अणंताणु०४ बंधगा अट्ठतेरह० सबलोगो वा । अबंधगा अढचोइसभागो। णिद्दापयला [ पच्चक्खाणावरण४ ] भयदु० तेजाक० वण्ण०४ अगु० उप० णिमिणं बंधगा अलुतेरह. सबलोगो वा । अबंधगा खेत्तभंगो । सादबंधगा अट्ठ-णवचोदस० सव्वलोगो वा । अबंधगा अट्ठतेरह० सव्वलोगो वा । असादबंधगा अट्ठतेरह० सव्वलोगो वा । अबंधगा अढणवचोदस० सव्वलोगो वा । दोण्णं बंधगा अट्ठतेरह० सव्वलोगो वा ! अबंधगा णस्थि । मिच्छत्तस्स बंधगा अट्ठतेरहचोदस० सबलोगो वा । अबंधगा अट्ठणव-चोद्दसभागो। अपच्चक्खाणा०४ बंधगा ४, १३ भाग वा सर्वलोक है । अबन्धक नहीं हैं।' विशेष-विहारवत्स्वस्थान, वेदना, कषाय और वैक्रियिक समुद्भात परिणत देवों में आठ राजू बाहुल्यवाले राजू प्रतर प्रमाण क्षेत्रमें भ्रमण करनेकी शक्ति होनेसेच स्पर्शन कहा है। मारणान्तिक तथा उपपाद परिणत उक्त जीव सर्वलोकको स्पर्श करते हैं, कारण मारणान्तिक और उपपाद परिणत मिथ्यात्वी स्त्री, पुरुषवेदी जीवोंके अगम्य प्रदेशका अभाव है। ऊपर सात राजू तथा नीचे छह राजू प्रमाण क्षेत्रका स्पशनकी अपेक्षा अतीत-अनागत कालकी दृष्टिसे १३ भाग है। (२७२) स्त्रीवेदमें तैजस तथा आहारक समुद्घात नहीं होते ।२।। स्त्यानगृद्धित्रिक, अनन्तानुबन्धी ४ के बन्धकोंके ६४, १३ वा सर्वलोक है। अबन्धकोंके कल है। विशेष-स्त्यानगृद्धि ३ तथा अनन्तानुबन्धी ४ के अबन्धक सम्यग्मिथ्यात्वी वा अविरत-सम्यक्त्वी जीवोंने अतीत-अनागत कालकी अपेक्षा विहारक्तस्वस्थान, वेदना, कषाय वैक्रियिक, मारणान्तिक समुद्धातकी अपेक्षा ऊपर छह और नीचे दो इस प्रकार स्पर्शन किया है । मिश्र गुणस्थानमें उपपाद पद तथा मारणान्तिक समुद्धात नहीं होते हैं। स्त्रीवेदी जीवोंमें असंयत सम्यक्त्वीका उपपाद नहीं होता है । ( २७४) निद्रा-प्रचला, प्रत्याख्यानावरण, भय-जुगुप्सा, तैजस- कार्मण वर्ण ४, अगुरुलघु, उपघात, निर्माणके बन्धकोंका , ३ वा सर्वलोक है, अबन्धकोंका क्षेत्रके समान है अर्थात् लोकके असंख्यातवें भाग हैं । साता वेदनीयके बन्धकोंका , कट वा सर्वलोक है। अब न्धकोंका ६४, १९ वा सर्वलोक है । असाताके बन्धकोंका ६, १३ वा सर्वलोक है; अबन्धकोंका ६, कर वा सर्वलोक है। दोनोंके बन्धकोंका , वा सर्वलोक है. अबन्धक नहीं है । मिथ्यात्वके बन्धकोंका, १ वा सर्वलोक है, अवन्धकोंका द, कर है। १. "वेदाणुवादेण इत्थिवेदपुरिसवेदएसु मिच्छादिट्ठीहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ? लोगस्स असंखेग्जदि. भागो । अट्ठचोहसभागा देसूणा सव्वलोगो वा ।"-षटर्ख०, फो०,सू० १०२, १०३ । २. इत्थिवेदे तदुभयं ( तेजाहारसमुग्घादा) णत्थि -खु० बं०, टी० पृ० ४२१ । ३. "सम्मामिच्छादिट्ठि-असंजदसम्मादिट्ठीहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ? लोगस्स असंखेज्जदिभागो। अट्ट चोद्दसभागा वा देसूणा फोसिदा।" -सू० १०६ । ४. इत्थिवेदेसु असंजदसम्मादिट्ठीणं उववादो पत्थि-ध० टी०, पृ० २७४ । ५, "सासणसम्मादिट्ठीहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ? लोगस्स असंखेज्जदिभागो । अट्ठणचोद सभागा देसूणा ।" - खं०, फो०, सू० १०४, १०५। ६. "संजदासंजदेहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ? लोगस्स असंखेज्जदिभागो । छचोद्दसभागा देसूणा ।"-सू० १०८ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001388
Book TitleMahabandho Part 1
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages520
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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