________________
पडबंधाहियारो
२४६
अट्ठ- तेरह०, सव्वलोगो वा । अबंधगा छच्चोद सभागो । इत्थ० पुरिस० बंधगा अट्ठचोद सभागो । अबंधगा अडतेरह० सव्वलोगो । बुंस० बंधगा अद्भुतेरह ० सव्वलोगो वा | अधगा अट्ठचोद्द सभागो । तिष्णं वेदाणं बंधगा अडतेरह ० सव्वलोगो वा । अधगा णत्थि । हस्सरदि सादभंगो। अरदिसोगं असादभंगो । दोष्णं युगलाणं बंधगा अट्ठ-तेरह भागो, सव्वलोगो वा । अबंधगा खेत्तभंगो । एवं थिराथिर - सुभासुभ० । णिरयदेवायु- तिण्णिजादि० ( गदि ) आहारदुगं तित्थयरं बंधगा खेत्तभंगो । अबंधगा अ-तेरहभागो सव्वलोगो वा । दोआयु- मणुसगदि मणुसाणुपुव्वि आदाउजवं दोगोदं (2) बंधगा अट्ठ- चोद सभागो । अबंधगा अट्ठतेरहभागो, सव्वलोगो वा । दोगदि-दोआणुपुव्वि-बंधगा बच्चोद सभागो । अबंधगा अट्ठतेरह भागो, सव्वलोगो वा । तिरिक्खगदि-तिरिक्खाणु
विशेष - मिध्यात्व के अवन्धक सासादन सम्यक्त्वी जीवोंने बिहारवत्स्वस्थान, वेदना, कषाय तथा वैक्रियिक समुद्रात की अपेक्षा कई भाग स्पर्श किया है, कारण ८ राजू बाहुल्यवाले राजू तर के भीतर देव, स्त्री, सासादन सम्यग्दृष्टि जीवों के गमनागमन के प्रति प्रतिषेधका अभाव है। मारणान्तिक समुद्रात परिणत उक्त जीवने नीचे दो और ऊपर ७ राजू अर्थात् ४ भाग स्पर्श किये हैं । (२७२ )
अप्रत्याख्यानावरण ४ के बन्धकोंके ६४, १४ वा सर्वलोक स्पर्श है, अबन्धकोंके १४ है । विशेष-अप्रत्याख्यानावरणके अबन्धक देशत्रती स्त्रीवेदीने मारणान्तिक द्वारा भाग स्पर्श किये, कारण अच्युत कल्पके ऊपर संयतासंयत तिर्यंचोंका उत्पाद नहीं होता है । (२७५) १
स्त्रीवेद-पुरुषवेद के बन्धकोंका १४, अबन्धकोंका १४, १३ वा सर्वलोक है । नपुंसक वेद के बन्धकोंका, वा सर्वलोक है। अबन्धकोंका ६४ है । तीनों वेदों के बन्धकका वा सर्वलोक है; अन्धक नहीं है । हास्य-रति में साता वेदनीयके समान है अर्थात् ६४, ४ वा सर्वलोक है, अबन्धकोंका, वा सर्वलोक है । अरति शोक में असातावेदनीयके समान भंग है । अर्थात् बन्धकोंके १४, ३ वा सर्वलोक है; अबन्धकोंके ६४, १४ वा सर्वलोक है । हास्य- रति, अरति शोक इन दो युगलोंके बन्धकोंके १४, १४ वा सर्वलोक हैं । अबन्धकोंके क्षेत्र के समान भंग है । अर्थात् लोकके असंख्यातवें भाग है। स्थिर अस्थिर, शुभ-अशुभ में इसी प्रकार है। नरका, देवायु, तीन जाति (?) (गति) आहारकद्विक और तीर्थंकर के बन्धकों का क्षेत्र के समान भंग है । विशेष, यहाँ जातिके स्थानमें गतिका पाठ उपयुक्त प्रतीत होता है। जातिका वर्णन आगे किया गया है। अबन्धकोंका १३ वा सर्वलोक हैं । मनुष्यायु, तिर्यंचायु, मनुष्यगति, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, आतप, उद्योत तथा दो गोत्र ( ? ) के बन्धकोंका है। अबन्धकोंका १३ वा सर्वलोक है ।
विशेष - गोत्रका कथन आगे आया है। अतः यहाँ 'दोगोद' पाठ अधिक प्रतीत होता है। नरकगति, देवगति, नरकानुपूर्वी, देवानुपूर्वीके बन्धकका १४ है । अबन्धकोंका ६४
१. "पत्तजड जात्र अणियट्टिउवसामग खत्रएहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ? लोगस्स असंखेज्जदिभागो ।" - सू० ११० ।
३२
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org