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पयडिबंधाहियारो
२४७ एक्कारहभागो, केवलिभंगो। इत्थि० पुरिस० णqस० बंधगा अबंधगा सबलोगो । तिण्णं बंधगा सबलोगो । अबंधगा केवलिभंगो । एवं तिण्णं वेदाणं भंगो चदुणोक० पंचजादि-छस्संठातसथावरादिणवयुगलं दोगोदं च । तिरिक्खगदि-मणुसगदिबंधगा अवंधगा सव्वलोगो । देवगदिबंधगा खेत्तभंगो। अबंधगा सव्वलोगो । तिण्णं गदीणं बंधगा सव्वलोगो । अबंधगा केवलिभंगो । एवं तिण्णि आणु० । ओरालि० बंधगा सव्वलोगो। अबंधगा लोगस्स असंखेजदि० वा भागा वा सव्वलोगो वा। वेउव्वियबंधगा खेत्तभंगो। अबंधगा सबलोगो। दोण्णं बंधगा सबलोगो। अबंधगा केवलिभंगो। ओरालि. अंगोवंगस्स बंधगा अबंधगा सव्वलोगो। वेउब्धिय० अंगो खेत्तभंगो। दो-अंगोवंगाणं बंधगा अबंधगा सव्वलोगो। एवं छसंघ० परघादुस्सास-आदाउजो० दोविहा० दोसर । तित्थय० बंधगा खेत्तभंगो। अबंधगा सबलोगो।
२०५. इत्थिवेदे-पंचणा० चदुदंस० चदुसंज० पंचंतराइगाणं बंधगा अट्ठतेरह० अथवा केवली-भंग है।
विशेष-उपपाद पदमें वर्तमान मिथ्यात्व के अवन्धक सासादन सम्यक्त्वी जीव मेरुके मूल भागसे नीचे पाँच राजू और ऊपर अच्युत कल्प तक छह राजू प्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन करते हैं,इससे भाग प्रमाण स्पर्श किया हुआ क्षेत्र हो जाता है । ( ध० टी०,फो० पृ० २७०)।
. स्त्रीवेद, पुरुषवेद, नपुंसकवेदके बन्धकोंका सर्वलोक स्पर्शन है । तीनों वेदोंके बन्धकोंका सर्वलोक है । अबन्धकोंका केवली-भंग है। हास्यादि ४ नोकषाय, ५ जाति, ६ संस्थान, त्रसस्थावरादि नवयुगल तथा २गोत्रका वेदत्रयके समान भंग है। तिर्यंचगति मनुष्यगति के बन्धकों, अबन्धकोंका सर्वलोक स्पर्श है। देवगति के बन्धकोंकाक्षेत्रके समान अर्थात् लोकका असंख्यातवाँ भाग भंग है. अबन्धकोंका सर्वलोक है। तीन गतिके बन्धकोंका सर्वलोक है । अबन्धकोंका केवली-भंग है । तीन आनुपूर्वियोंमें इसी प्रकार जानना चाहिए।
विशेष- कार्मण काययोगमें नरकगति तथा नरकगत्यानुपूर्वीका बन्ध न होनेसे यहाँ तीन ही गतियोंका उल्लेख किया है।'
. औदारिक शरीरके बन्धकोंका सर्वलोक है; अबन्धकोंका लोकके असंख्यात बहुभाग वा सर्वलोक है। वैक्रियिक शरीरके बन्धकोंका क्षेत्र समान भंगहै अर्थात् लोकका असंख्यातवाँ भाग है। अबन्धकोंका सर्वलोक है। दोनों शरीरोंके बन्धकोंका सर्वलोक है । अबन्धकोंके केवली-भंग है । औदारिक अंगोपांगके बन्धकों,अबन्धकोंका सर्वलोक है । वैक्रियिक अंगोपांगका क्षेत्रके समान भंग है अर्थात् बन्धकोंका लोकका असंख्यातवाँ भाग, अबन्धकोंका सर्वलोक है। दोनों अंगोपांगोंके बन्धकों, अबन्धकोंका सर्वलोक है । छह संहनन, परघात, उच्छ्वास, आतप, उद्योत, दो विहायोगति, दो स्वर में ऐसा ही है। तीर्थकरके ,बन्धकोंका क्षेत्रके समान लोकका असंख्यातवाँ भंग है । अबन्धकों के सर्वलोक है। ___२०५लीवेदमें-५ ज्ञानावरण, ४ दर्शनावरण, ४ संज्वलन, ५ अन्तरायके बन्धकोंका
१ "कम्मे उरालमिस्सं वा।" -गो० क०,गा० ११६ । "ओराले वा मिस्से णहि सुरणिरयाउहारणिरयदुगं ।" - गो० क०,गा० ११६ ।
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