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महाधे
रियाणुपु० । तिरिक्खगदि तिरिक्खायुभंगो । णवरि तिरिक्खायुं सिया० । एवं तिरिक्खाणु ० | मणुसगदि मणुसायुभंगो । णवरि मणुसायुं सिया बं० । एवं मणुसाणुपु० । देवदिं बंधतो पंचणाणा० चदुदंस० चदुसंज० भयदु० उच्चा० पंचंत० णियमा बं० । सादं सिया० । असादं सिया० । दोष्णं वेदणी० एकदरं० । ण चैव अबं० । एवं इस्सर दि-अरदिसोगाणं दोष्णं युगलाणं । देवायु सिया०, सिया अबं० । हेट्ठा उवरि देवायुम गो० । णामं सत्थाण० भंगो । एवं देवाणु० ।
१२१. एइंदियं बंधतो पंचणा० णवदंस० मिच्छत्त० सोलसक० नपुंस० भयदुगुं० णीचा० पंचत० णियमा बं० । सादासादं चदुणोकसाय० तिरिक्खगदिभंगो० । तिरिक्खायुं० सिया । णामाणं सत्थाणभंगो । एवं आदाव थावराणं । विगलिंदियसुहुम-अपज० साधारणा हेठा उवरि एइंदियभंगो। णामं ( णामाणं ) अष्पष्पणो
नुपूर्वीका बन्ध करनेवाले के नरकगति के समान भंग जानना चाहिए । तिर्यंचगतिका बन्ध करनेवालेके तिर्यंचायुके समान भंग जानना चाहिए । विशेष, तिर्यंचायुका स्यात् बन्धक है । तिर्यंचानुपूर्वी में भी इसी प्रकार जानना चाहिए ।
विशेष – तिर्यंचायुके बन्धकके नियमसे तिर्यंचगतिका बन्ध होता है, किन्तु तिर्यंचगति बन्धक तिचायुके बँधनेका कोई निश्चित नियम नहीं है। ऐसा ही मनुष्यगति में भी है।
मनुष्यगतिका बन्ध करनेवालेके मनुष्यायुके समान भंग है । विशेष, मनुष्यायुका स्यात् बन्धक है । मनुष्यानुपूर्वी में भी इसी प्रकार है ।
देवगतिका बन्ध करनेवाला - ५ ज्ञानावरण, ४ दर्शनावरण, ४ संज्वलन, भय, जुगुप्सा, उच्चगोत्र तथा ५ अन्तरायोंका नियमसे बन्धक है । साताका स्यात् बन्धक है. असाताका स्यात् बन्धक है । दो वेदनीय में से अन्यतरका बन्धक है; अबन्धक नहीं है । हास्य- रति, अरति शोक इन दो युगलों में से अन्यतर युगलका बन्धक है; अबन्धक नहीं है । देवायुका स्यात् बन्धक है, स्यात् अबन्धक है । अधस्तन उपरितन बँधनेवाली प्रकृतियों में देवायुका भंग जानना चाहिए । नामकर्मकी प्रकृतियों में स्वस्थान सन्निकर्ष के समान भंग है विशेषार्थ - देवायुके बन्धकके तो देवगतिके बन्ध-सन्निकर्षका नियम है; किन्तु देवगतिके बन्धकके साथ देवायुके बन्धका ऐसा नियम नहीं है । दूसरी बात यह है कि देवायुका बन्ध अप्रमत्त संयत पर्यन्त है; जब कि देवगतिका अपूर्वकरण गुणस्थान पर्यन्त बन्ध होता है । इस कारण देवगतिके बन्धकके देवायुका अबन्ध भी कहा है ।
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देवानुपूर्वी में देवगति के समान भंग जानना चाहिए ।
१२१. एकेन्द्रियका बन्ध करनेवाला - ५ ज्ञानावरण, ६ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, १६ कषाय, नपुंसक वेद, भय, जुगुप्सा, नीचगोत्र, ५ अन्तरायका नियम से बन्धक है । साता, असाता, ४ नोकषायमें तियंचगतिके समान भंग है । तिर्यंचायुका स्यात् बन्धक है। नाम कर्म की प्रकृति के बन्धके विषय में स्वस्थान सन्निकर्षके समान भंग जानना चाहिए। आताप तथा स्थावरके बन्धकके इसी प्रकार भंग है। विकलेन्द्रिय, सूक्ष्म, अपर्याप्तक, साधारणमें-अधस्तन,
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