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पयडिबंधाहियारो
१४३ सत्थाणभंगो कादव्यो । पंबिंदियं बंधंतो पंचणा० चदुदंस० चदुसंज० भयदु० पंचंत० णियमा वं० । पंचदंस० मिच्छत्त-बारसक० चदुआयु० सिया बं० । सिया अबं० । दोवेद० सत्तणोक० दोगोदा० सिया बं०, सिया अबं० । एदेसिं एक्कदरं बं०, ण चेव अबं० । णामाणं सत्थाण भंगो ।
१२२. ओरालियं बं० पंचणा० छदंस. बारसक० भयदु० पंचतरा० णियमा बं० । दोवेदणी०-तिणि वे. हस्सरदि-दोयुग० दोगोदाणं सिया बं० सिया अबं० । एदेसिं एकदरं० । ण चेव० । थीणगिद्धिति० मिच्छ० अणंताणुबं०४ दो आयु० सिया० । णामाणं सत्थाणभंगो ।
१२३. वेगुब्बिय बंधंतो हेट्ठा उवरि देवगदिभंगो । णवरि तिणि वेदं दोगोदं सिया०, सिया अबं० । एदेसि०एक्कदरं । ण चेव अब । णिस्य-देवायु० सिया० ।
उपरितन बँधनेवाली प्रकृतियोंका एकेन्द्रियके समान भंग है। विशेष, नामकर्मकी प्रकृतियों के विषयमें स्वस्थान सन्निकर्षवत् भंग जानना चाहिए।
_पंचेन्द्रियका बन्ध करनेवाला-५ ज्ञानावरण, ४ दर्शनावरण, ४ संज्वलन, भय, जुगुप्सा, ५ अन्तरायका नियमसे बन्धक है । ५ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, १२ कषाय, ४ आयुका स्यात् बन्धक है, स्यात् अबन्धक है।
विशेष-पंचेन्द्रिय जातिका बन्ध आठवें गुणस्थान तक होता है तथा निद्रादि दर्शनावरण ५ आदिका उसके नीचे तक होता है । इस कारण यहाँ स्यात् अबन्धक कहा है।
दो वेदनीय, सात नोकषाय, तथा २ गोत्रका स्यात् बन्धक है, स्यात् अबन्धक है। इनमें से एकतरका बन्धक है; अबन्धक नहीं है। नामकर्मकी प्रकृतियों के बन्धके विषयमें स्वस्थान सन्निकर्षके समान जानना चाहिए।
१२२. औदारिक शरीरका बन्ध करनेवाला-५ ज्ञानावरण, ६ दर्शनावरण (स्त्यानगृद्धित्रिक रहित ) १२ कषाय, भय, जुगुप्सा, ५ अन्तरायका नियमसे बन्धक है।
विशेष-औदारिक शरीरका बन्ध असंयत गुणस्थान पर्यन्त है । इससे उसके बन्धकके ६ दर्शनावरण, १२ कषायादिका नियमसे बन्ध कहा गया है।
दो वेदनीय, ३ वेद, हास्य-रति, अरति-शोक दो युगल, २ गोत्रका स्यात् बन्धक है, स्यात् अबन्धक है । इनमें एकतरका बन्धक है; अबन्धक नहीं है। स्त्यानगृद्धित्रिक, मिथ्यात्व, अनन्तानुबन्धी ४, दो आयु ( मनुष्य-तियचायु) का स्यात् बन्धक है। नाम कर्मकी प्रकृतियोंके बन्धके विषयमें स्वस्थान सन्निकर्षवत् भंग जानना चाहिए ।
१२३. वैक्रियिक शरीरका बन्ध करनेवालेके उपरितन तथा अधस्तन बँधनेवाली प्रकृतियोंमें देवगतिके समान भंग है। विशेष, ३ वेद, २ गोत्रका स्यात् बन्धक है, स्यात् अबन्धक है। इनमें से एकतरका बन्धक है। अबन्धक नहीं है।'
विशेषार्थ-देवगतिमें पुरुषवेद, स्त्रीवेद, एवं उच्चगोत्रका ही सद्भाव है, किन्तु यहाँ वैक्रियिकशरीरके बन्धकोंके वेदत्रय, तथा गोत्रद्वयका वर्णन किया है, कारण वैक्रियिकशरीरके साथ देवगति या नरकगतिका बन्ध होता है। इसी दृष्टिसे नपुंसकवेद, और नीचगोत्रका भी बन्ध कहा है।
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